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15.5.08

अशोक शास्त्री की याद में ...

क्लब में वो शीशम का वो पेड़ तो पहले ही कट चुका था जिसके साये में अशोक जी की महफिल जमती थी

प्रेमचन्द गां¡धी

कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन पर कभी यकीन नहीं आता यह जानते हुए भी कि यही सच है। अशोक शास्त्री नहीं रहे विश्वास नहीं होता। बार-बार जेहन में मिर्जा गालिब का एक शेर गूंजता है-थी वो इक शख्स के तसव्वुर सेअब वो रानाई-ए-ख़याल कहा¡सचमुच उस शख्स में एक जादू था जिसमें बं¡धकर हर कोई खिंचा चला आता था। उस जादू को आखिर क्या नाम दिया जाये? गौरवर्ण, मेधा और ज्ञान से दिपदिपाता चेहरा, कपड़ों से झां¡कती सादगी भरी नफासत और वाणी के माधुर्य में घुले शब्दों से झलकती विद्वता किसी को भी एक पल में ही बां¡ध लेने के लिए काफी थी। हरदम अपनी वाग्मिता और ज्ञान की चुटकियों से चमत्कृत करने वाले अशोक शास्त्री आज हमारे बीच नहीं हैं। जयपुर की साहित्यिक-सांस्कृतिक बिरादरी में एक कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा छाया हुआ है।अशोक शास्त्री अलवर से जयपुर आने वाले पत्रकारों की उस पीढ़ी के नायक थे जिसने राजस्थान की पत्रकारिता में अपना एक खास मुकाम बनाया है। अशोक शास्त्री, जगदीश शर्मा और ईशमधु तलवार की एक तिकड़ी थी और इस तिकड़ी में जगदीश शर्मा और ईशमधु तलवार जयपुर आने वाले शुरुआती पत्रकार थे। अशोक शास्त्री इनके बाद जयपुर आये। अलवर में अशोक शास्त्री ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो काम किया, वह आज एक इतिहास बन चुका है। इतिहास इस रूप में कि पत्रकारिता में अब वैसा दौर शायद कभी नहीं लौट सकेगा। अशोक शास्त्री ने तरुण अवस्था में वो काम किया जिसे बड़े-बड़े लोग नहीं कर पाते। दैनिक ‘अरानाद’ के युवा सम्पादक अशोक शास्त्री ने स्थानीय जरुरतों के लिहाज से पाठकों की अपेक्षा और आकांक्षाओं की पूर्ति करते हुए अलवर के इतिहास का उस जमाने में एक ऐसा लोकप्रिय अखबार निकाला जिसकी अलवर शहर में प्रसार संख्या उस वक्त प्रदेश के सबसे बड़े अखबार से भी ज्यादा थी। ‘अरानाद’ एक सहकारी प्रयास था जिसमें कर्मठ और प्रतिबद्ध लोगों की थोड़ी-थोड़ी पूं¡जी लगी हुई थी। लेकिन बड़ी पूं¡जी के आगे आखिर कब तक यह सहकारी प्रयास टिक सकता था? आखिरकार जब सारी पूं¡जी खत्म हो गई तो मास्टर बंशीधर जी ने अपने प्रेस में अखबार को इस तिकड़ी के कहने पर तीन दिन और छापा। बंषीधर जी कवि ऋतुराज और लेखक सुरेश पंडित के ससुर थे।अशोक शास्त्री एक प्रयोग की असफलता से घबराने वाले नहीं थे। कुछ अरसे बाद उन्होंने एक और प्रयास किया तो साप्ताहिक ‘कुतुबनामा’ का आगाज हुआ। तीखे राजनैतिक तेवर और गहरी साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न इस साप्ताहिक ने जल्दी ही प्रान्तीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी। इस प्रयोग में प्रदेश के अनेक युवा पत्रकार जुड़े। लेकिन एक-एक कर तीनों मित्रों के जयपुर आने से ‘कुतुबनामा’ को भी इतिहास में दर्ज होना पड़ा। अशोक शास्त्री जयपुर आये तो राजस्थान पत्रिका और इतवारी पत्रिका में सम्पादकीय दायित्वों के तहत इन पत्रों को अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूरित कर एक नयी दृष्टि दी। यह अशोक शास्त्री की कोशिशों का ही नतीजा था कि पूरे प्रान्त की सृजनात्मक प्रतिभाओं को राजस्थान पत्रिका प्रकाशनों के माध्यम से एक राज्यव्यापी मंच मिला। इतवारी पत्रिका को राष्ट्रीय स्तर पर एक गम्भीर दृष्टिसम्पन्न साप्ताहिक के रूप में पहचाना गया। उस वक्त राजस्थान पत्रिका और इतवारी पत्रिका में लिखने वाले लेखक-पत्रकार आज देश के शीर्षस्थ लेखकों में गिने जाते हैं मसलन ओम थानवी, राजकिशोर और प्रयाग शुक्ल।पढने और नये-नये विषयों में यूं तो अशोक शास्त्री की रूचि बहुत पहले से थी लेकिन इन्हीं दिनों अशोक शास्त्री की दिलचिस्पयों में साहित्य शीर्ष पर आया। वे सामान्य पत्रकारिता से हटकर गम्भीर साहित्य की ओर उन्मुख हुए। कृष्ण कल्पित, सत्यनारायण, संजीव मिश्र, विनोद पदरज, राजेन्द्र बोहरा, मनु शर्मा, मन्जू शर्मा, लवलीन, अजन्ता और सीमन्तिनी राघव के सम्पर्क से राजस्थान विश्वविद्यालय में अशोक शास्त्री जल्द ही एक लोकप्रिय व्यक्ति बन गये। राजस्थान पत्रिका के साथ-साथ विश्वविद्यालय भी उनकी बैठकबाजी का नया केन्द्र बन गया था। यहीं महान साहित्यकार रांगेय राघव की कवयित्री पुत्री सीमन्तिनी से उनकी मैत्री विवाह सम्बन्ध में बदली।यह अशोक शास्त्री के जीवन का नया दौर था जिसमें उन्हें कुछ असाधारण काम करने थे। सबसे पहले उन्होंने उस परिवार का दायित्व सं¡भाला जिससे जुड़कर उनके भीतर के रचनात्मक पत्रकार को गहरा सुकून मिलना था। अशोक शास्त्री ने स्वर्गीय रांगेय राघव के प्रकाशित-अप्रकाशित लेखन को खोजा- ढू¡ढा और सम्पादित कर व्यवस्थित रूप से प्रकाशित कराया। रांगेय राघव की मृत्यु के बाद उनके साहित्य को प्रकाश में लाने का जितना श्रेय श्रीमती सुलोचना रांगेय राघव का है उतना ही अशोक शास्त्री का भी। अशोक जी चाहते थे कि रांगेय राघव को प्रत्येक माध्यम में ले जाया जाये। इसलिये जब ‘कब तक पुकारू¡’ पर टीवी धारावाहिक बनाने की बात आई तो कृति के साथ एक माध्यम में अन्याय न हो इसी वजह को ध्यान में रखते हुए अशोक शास्त्री ने स्वयं पटकथा लिखने की ठानी। आज भारतीय टेलीविजन इतिहास के कुछ अविस्मरणीय धारावाहिकों में ‘कब तक पुकारूं’ का नाम अशोक शास्त्री की प्रतिभा और परिश्रम के कारण भी है। इन दिनों अशोक शास्त्री रांगेय राघव के उपन्यास ‘पथ का पाप’ पर एक फीचर फिल्म की स्क्रिप्ट को अन्तिम रूप दे रहे थे। सम्भवत: वे यह फिल्म गोविन्द निहलानी के लिए लिख रहे थे।अशोक शास्त्री जितना पढाकू लेखक-पत्रकार देश भर में ढू¡ढना मुश्किल है। उनके अध्ययन में कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण और आलोचना जैसी साहित्यिक विधाएं ही नहीं बल्कि धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद, अध्यात्म, चित्रकला, सिनेमा, संगीत, जादू-टोना, भूत-प्रेत और विश्व साहित्य की विख्यात और कमख्यात कृतियों से लेकर दुनिया भर की लोक कथाएं भी शामिल थीं। एक इतालवी लोक कथा उन्होंने रंगकमीZ साबिर खान को सुनाई तो एक नाट्य कार्यशाला में उस पर राजस्थान का मशहूर नाटक तैयार हुआ ‘और रावण मिल गया’ जिसे अशोक राही ने लिखा था।अशोक शास्त्री की एक खासियत थी कि वे जितना पढते थे उसे सहज-सरल शब्दों में रोज शाम अपने दोस्तों के बीच सुनाते भी थे। इस तरह उन्होंने जयपुर में पता नहीं कितने मित्रों को विश्व साहित्य की महानतम कृतियों से परिचित कराया। पिंकसिटी प्रेस क्लब में एक दौर में उनकी शाम की महफिलों में आने वाले दोस्तों के लिए ताजा पढ़ी-लिखी रचना का परिचय देना जरुरी हो गया था। एक दफा तो उन्होंने शाम को नया शेर सुनाने की परम्परा ही डाल दी थी। इस तरह उनकी शाम की महफिलें केवल बतौलेबाजी की ही नहीं ज्ञान और अध्ययन की भी महफिलें थीं। अनेक लेख-पत्रकार रोज नये शेरों से लैस होकर आते थे। बहुत कम लोगों को पता है कि अशोक शास्त्री सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अद्भुत योजनाकार भी थे। उनके द्वारा बनाये गये डिजाइन पर जयपुर में दो अविस्मरणीय कार्यक्रम हुए। कवि ऋतुराज को `पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर कार्यक्रम में आये अतिथि रचनाकारों के लिए जयपुर के लेखक-पत्रकार-कलाकारों की ओर से एक शानदार पार्टी आयोजित की गई थी। ....इसी तरह जब कट्टरपंथियों ने मकबूल फिदा हुसैन के सरस्वती चित्र पर हल्ला मचाया तो अशोक जी ने अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन में एक अनूठा विरोध-प्रदर्शन डिजाइन किया। इसमें शहर के हृदय स्थल स्टेच्यू सकिZल पर एक दिन का धरना दिया गया। धरने में चित्रकारों के साथ लेखक, पत्रकार, रंगकर्मीZ और बुद्धिजीवियों के साथ आम लोगों ने भी शिरकत की थी। हुसैन के सरस्वती चित्र की ढेरों प्रतिया¡ बां¡टी गई। चित्रकारों ने चित्र बनाए, कवियों ने कविताएं सुनाईं, कलाकारों ने गीत गाये और एक बड़े कैनवस पर हुसैन के समर्थन में हस्ताक्षर किये गये। इस विरोध-प्रदर्शन में यू¡ तो सभी संगठनों के लोग शामिल थे लेकिन अशोक जी चाहते थे कि इसे किसी संगठन विशेष या समूह के बजाय सामूहिक सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह जाना जाये। वे हुसैन का समर्थन सांस्कृतिक और संवैधानिक धरातल पर आमजन के साथ किये जाने के पक्षधर थे। उस रोज पुलिस-प्रशासन और गुप्तचर विभाग के लोग दिन भर पूछते रहे कि आखिर इस धरने की आयोजक संस्था और उसके पदाधिकारी कौन हैं। बकौल अशोक जी उस दिन एक नई फाइल खुली होगी जिसमें इतने ज्वलन्त मुद्दे पर व्यापक जनभागीदारी को रेखांकित किया गया होगा। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन दोनों आयोजनों के लिए खुद अशोक जी ने भी चन्दा इकट्ठा किया था। प्रेस क्लब में एक बार उन्होंने नये निर्माण के लिए पेड़ काटे जाने के खिलाफ जबर्दस्त आन्दोलन चलाया। उस आन्दोलन के चलते प्रेस क्लब चुनावों में वोटों की राजनीति की एक विचित्र शुरुआत हुई, जिसे आज हम फलता-फूलता देख रहे हैं। ....इसे सिवा दुर्भाग्य के क्या कहा जाये कि हमारे यहा¡ दिवंगतों को श्रद्धांजलि देने का भी लोगों में सलीका नहीं है। जिस प्रेस क्लब को अशोक जी बुद्धिजीवियों का केन्द्र बनाने का प्रयास कर रहे थे, वहीं आयोजित शोक सभा में लोगों ने मृत्यु के कारणों की चर्चा के बहाने अशोक शास्त्री की तमाम उपलब्धियों को नकारते हुए सारी चर्चा क्लब और मदिरापान पर केन्द्रित कर दी। इस किस्म के त्वरित मूल्यांकनों से कभी सही नतीजों पर नहीं पहु¡चा जा सकता, क्योंकि कल लोगों के खान-पान में सिगरेट-जर्दा-पान-सुपारी-मीठा-नमकीन-दूध-चाय-कॉफी जैसे बहानों को मृत्यु का कारक मान लिया जाएगा।आज इण्डियन कॉफी हाउस और प्रेस क्लब की वो जगहें खामोश हैं जहा¡ कभी अशोक जी के ठहाके गू¡जते थे या ज्ञान की सरिता बहती थी। क्लब में वो शीशम का वो पेड़ तो पहले ही कट चुका था जिसके साये में अशोक जी की महफिल जमती थी। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने क्लब में अपने लिए छत चुनी थी वो भी शायद मजबूरी में क्योंकि उस छत से भी वो हाहाकारी बाजार दिखता था जिसे अशोक जी सख्त नापसंद करते थे। आज उस शख्स की गैर मौजूदगी में ना प्रेस क्लब जाने का मन करता है और न ही उन किताबों को देखने का जिन पर उन्होंने लिखा था – प्रे च के लिए : अ शा। अपने आखिरी दिनों में अशोक जी ने मुझसे इरविंग स्टोन की ‘लस्ट फॉर लाइफ ‘का हिन्दी अनुवाद जयपुर में तलाश करने के लिए कहा था। जीवन के प्रति ऐसी उत्कट अभिलाषा लिए खूबसूरत खयालों वाला शख्स आज हमारे बीच नहीं है तो लगता है कि मिर्जा गालिब ने यह शेर अशोक जी जैसे लोगों के लिए ही लिखा था:थी वो इक शख्स के तसव्वुर सेअब वो रानाई-ए-खयाल कहां¡।
Posted by Poet from Pinkcity

http://prempoet.blogspot.com/

2 comments:

Anonymous said...

हरे दादा,
धन्यवाद आपका और उनका भी जिसने बेहतरीन जानकारी के साथ बहुमूल्य यादों को संजो के पिरोया.

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

Thanks bhadas.
For providing us important information regarding Mr. Ashok Shastri of Alwar.It is true that journalists in bulk are only born in Alwar and Bundi. We pay tribute to Honourable Ashok Shastri for his services to People of Rajputana.