भड़ास पर गालियों की चर्चा के दौरान मुझे काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बिताये गये स्नातक की पढ़ाई के तीन साल याद आते हैं. एक तो मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी ऊपर से ठेठ लट्ठमार भाषा में बात करने का आदी. साथ ही उस जमाने में बीएचयू के कला संकाय को रंडुआ फैकल्टी (खुलेआम) कहा जाता था, (आज के बारे में नहीं जानता). हां तो मैं बता रहा था कि मैं भी उसी रंडुआ फैकल्टी का एक छात्र था. यह तो बताना भूल ही गया कि रंडुआ फैकल्टी इसलिए कहा जाता था कि स्नातक स्तर में कला संकाय में कोई छात्रा नहीं होती. एक-आध विभाग को छोड़ दें, तो किसी भी विभाग में कला संकाय में लड़कियों का दाखिला नहीं होता. केवल लगभग दो हजार लड़के ही होते हैं. हां, तो उस रंडुआ फैकल्टी में पढ़ते हुए आते-जाते किसी भी लड़की को भौजी (शादीशुदा हो अविवाहित) कह देना आम बात थी. यही नहीं रहता भी था बिड़ला छात्रावास. अब यशवंत भाई से पूछ लीजिएगा कि बिड़ला छात्रावास की पूरे बीएचयू ही नहीं पूरे बनारस में क्या छवि है. एक ऐसा हास्टल जिसमें रंडुआ फैकल्टी में पढ़नेवाले सभी रंडुए रहते थे. यही नहीं उनमें से कई हमेशा फ्रस्ट्रेट रहते थे कि उनकी कोई महिला मित्र नहीं है. ऐसे छात्र भला जुबान से सब कुछ कह और कर लेने से सिवा और क्या कर सकते थे. हॉस्टल के बगल से कोई छात्रा गुजरी नहीं कि शुरू हो गयी पैलगी... भौजी पांवलागूं, भौजी प्रणाम, भैया का का हाल है. और सब ठीक है न. कुछ ऐसे ही. हुआ कुछ यूं कि मेरे कुछ साथियों ने संगीत के डिप्लोमा पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया और कुछ ही दिनों में उन्हें गर्लफ्रैंड भी मिल गयीं. ऐसी ही कुछ महिला मित्रों के साथ हॉस्टल के कई मित्र एक दिन बैठे थे. सभी अपनी-अपनी आवाज वायस रिकाडॆर में भर रहे थे. संयोग से मैं भी पहुंच गया. उनमें एक लड़की ऐसी थी, जो मुझे देख कर ही चिढ़ती थी या यूं कहें कि मेरी भाषा से चिढ़ती थी. (यशंवत जी भले ही संत कहें)बातचीत के दौरान गालियों की फुलझड़ियां छूटती थीं मेरे मुंह से. भला ऐसे में कौन लड़की मुंह लगाती. पर वह मुझे मुंह भी लगाती थी और जम कर बहस भी. बस उसकी एक ही शिकायत थी कि मुझे लड़कियों की कद्र करनी नहीं आती. मैं उन्हें सम्मान देना नहीं जानता. या मैं उन्हें भी अपने बराबर मानता हूं (वह हमेशा कहती थी कि तुम लड़कियों को अपने जैसा क्यों समझते हो). यहां बताता चलूं कि मैं शारीरिक बनावट के बजाय और किसी चीज में लड़कियों को किसी पुरुष से कम नहीं मानता और हर विषय पर उनसे खुल कर बात करता हूं. शायद कुछ ऐसा ही हम लोग भड़ास पर भी कर रहे हैं. मैंने पहले भी कहा था कि लोगों की नाराजगी जायज हो सकती है. वे अपनी भड़ास निकालें. या न झेल पायें, तो हमें मैला की तरह दरकिनार कर दें. कह दें ये वे मछलियां हैं, जो तालाब को गंदा करती हैं. पर मेरा एक सवाल भी है कि क्या केवल जुबान गंदी होने से कायनात में प्रलय आ जायेगी. अगर आ जाये, तो बेहतर ही है, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. जब दो तरह की बातें करनेवालों को कोई फर्क नहीं पड़ता है, तो हमें क्यों पड़े.मेरी बीएचयू वाली मित्र की तरह एक तरफ तो लड़कियों ( अपवादों को छोड़ कर)को बराबरी का दर्जा भी चाहिए और साथ ही में अबला या शालीन या लड़की या महिला या सभ्य या पता नहीं क्या-क्या होने का मुखौटा भी. यह ऐसा मुखौटा है, जिसके कारण लड़कियों को सीट और तथाकथित बौद्धिक लोगों को साहित्यिक कार्यक्रमों में आगे की सीट नसीब होती है. हमें यह सब नहीं चाहिए भाई. हम समाज सुधारक नहीं हैं. हमने समाज को सुधारने का ठेका नहीं लिया है.अरे जब हम अपने आप को आज तक नहीं सुधार पाये, तो समाज को क्या खाक सुधार पायेंगे. अब सवाल उठता है कि क्या है स्त्री मुक्ति? क्या तथाकथित सभ्यता के मुखौटे के पीछे छिपी बैठी हाड़-मांस की मूर्ति जिसे समाज की जंजीरों ने जकड़ या यूं कहें कि जिसने खुद को समाज की जंजीरों के पीछे सुरक्षित कर रहा है, को इसी तरह मुक्ति मिलेगी. नहीं, वर्जनाओं को तोड़ना होगा. मैं यह नहीं कहता है कि वे भी गरियाना शुरू कर दें. ऐसा कुछ भी नहीं है. गाली की वकालत मैं नहीं करता, लेकिन कम से कम हम पर वही बंदिशों न थोपी जायें, जिनके पीछे आधी दुनिया अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही, जिससे छुटकारा पाने की वह कोशिश कर रही है. नियम, सिद्धांत, तर्क, दर्शन और पता नहीं कितने बहानों के पीछे क्यों जा खड़ी होती है हमारी आबादी, प्रश्न यह है? प्रश्न यह भी है कि इन जंजीरों को अपने लिए बोझ, पुरुष मानसिकता और पता नहीं क्या-क्या बताने वाली आधी आबादी इनको उतार क्यों नहीं फेंकती. किस बात का डर है उसे? मुझे लगता है किसी बात का नहीं. उदाहरण हमारे सामने ही है. इसलिए स्त्री मुक्ति उनके खुद के हाथ में है. बराबरी का दर्जा मांगने से नहीं मिलेगा, मुक्ति मांगने से नहीं मिलेगी छीननी पड़ेगी. हमारी गालियों और भड़ास से किसी को डरने की जरूरत नहीं. मेरी मां के शब्दों में कह सकते हैं कि हम क्षणिक बुद्धि के लोग हैं यानी कि जो मन में आया बक दिया. बस यही सच्चाई है हमारी बातों के पीछे, जहां तक मुझे लगता है. अन्यथा मंच बहुत से हैं लिखने के. १२ घंटे अखबार के लिए कंप्यूटर में सिर खपाने के बाद इतनी ऊर्जा नहीं बचती कि हम कुछ और करें, फिर भी करते हैं, लिखते हैं. मन की भड़ास निकालते हैं, जिसके लिए यह मंच हैं. तरीका सबका अपना-अपना है. कोई गरिया कर निकालता है, तो कोई किसी और तरीके से. और जो लोग हमें सभ्य होने या गालियों से तौबा बरतने को कहते हैं, वह उनकी भड़ास ही तो है. इसलिए हम बुरा नहीं मानते. न ही सफाई देने की कोशिश करते हैं, बल्कि भड़ास के बदले एक और भड़ास निकलती है और रहेगी.बाकी फिरजय भड़ास
21.2.08
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1 comment:
thik hi frmaya aapne....j
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