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6.2.08

एक उत्तर-भारतीय की भावनाएं

पराये हैं,
ये
तो मालूम था हमको
जो अब कह ही दिया तूने
तो आया सुकूं दिल को


शराफत के उन सारे कहकहों में
शोर था इतना
मेरी आवाज़ ही पहचान में
न आ रही मुझको


बिखेरे क्यों कोई अब
प्यार की खुशबू फिज़ाओं में
शक की चादरों में दिखती
हर शय यहाँ सबको


बढ़ाओं आग नफ़रत की
जगह भी और है यारों
दिलों की भट्टियों में
सियासत को ज़रा सेको


सड़क पे आ के अक्सर
चुप्पियाँ दम तोड़ देती हैं
बस इतनी खता पे
पत्थर तो न फेंकों

स्वप्रेम
तिवारी

khabarchilal.blogspot.com

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादू,काहे रोए पड़े हो ?जौन एक्कौ दांईं दहाड़ दिहे होत्यो त इन तरह केर कविता तन्कौ न लिक्खत बनतै.....
भारतीय बने रहिए उत्तर,दक्षिण,पूरब और पश्चिम में भारतीयता को क्यों घुमा रहे हैं?
जय भड़ास