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18.7.08

समाज के मठाधीश यानी की समाज का शोषक.

अभी अर्द्यसत्य पढ़ रहा था, कि मनीषा दीदी के इस ब्लॉग को पढ़ते पढ़ते इस पोस्ट पर आकर अटक गया। विचारों के झंझावात में उलझा रहा मगर समझ में ना आया कि इस पर मैं किन शब्दों में अपनी राय रखूँ, वस्तुत: ये चित्रण लैंगिक विकलांग समाज से है मगर अद्भुत कि ये तो हमारे समाज का आइना है तो क्या सभी जगह इन मठाधीशों ने अपने स्वार्थपरक कार्य के लिए अन्धकार फैलाने कि ही कोशिश कि है। पोस्ट के शब्द और भावः, मेरे पास शब्दों कि कमी हो गयी कि क्या मैं एक लैंगिक विकलांग के ब्लॉग पर घूम रहा हूँ, अगर एसा है तो सम्पूर्ण मानव के ब्लॉग से बेहतर तो हमारी दीदी हैं क्या आप उनके इस विचार से अवगत हैं नही तो एक नजर डालिए और आइना देखिये, संग ही समाज को निहारिये



सभ्य समाज के ढांचे में प्रगतिवादी सोच को जब परंपराओं में कमी नजर आती है तो स्वाभाविक है कि नई सोच रूढ़ियों का विरोध करेगी। इस वैचारिक विरोध से ही समाज की कमियां क्रमशः दूर होती जाती हैं। स्वस्थ समज के लिये जो परंपराएं हानिकारक रहती हैं वे समाप्त हो पाती हैं। ऐसी है बुरी परंपराएं थीं - बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, पशु बलि, बंधुआ मजदूरी,छुआछूत आदि। जब श्रेष्ठ लोगों ने इन बुरी परंपराओं को समझा कि ये समाज के विकास में बाधक हैं तो इनका पुरजोर विरोध किया लेकिन यकीन मानिये कि एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने इन परंपराओं को अपनी सभ्यता की पहचान बताते हुए इनके पक्ष में हो कर इन्हें जीवंत रखने के लिये बाहुबल, धर्म और कानून आदि के हथियार उठा लिये। एक बारगी सामने से देखने से लगता है कि ये मात्र रूढ़िवादियों और प्रगतिवादियों के बीच असहमति का परिणाम है परंतु अंदर से पर्तें उघाड़ कर देखने पर ये मात्र निहित स्वार्थों की रक्षा के लिये होती लड़ाई थी।लैंगिक विकलांगों के समाज में भी ठीक ऐसा ही चल रहा है। जब कोई लैंगिक विकलांग गुरू-शिष्य परंपरा से इस समाज में प्रवेश करता है तब गुरू कहलाने वाले शख्स के मन में सत्यतः ऐसा कोई भाव होता ही नहीं है गुरूजी तो बस सुंदर-कमाउ शिष्यों की कमाई पर नजरें गड़ाए रखते हैं ताकि जल्द से जल्द बैठ कर खाने की जुगाड़ हो सके। समय बीतता जाता है और नए नायक, गुरू और चेले इस परंपरा में जुड़ते जाते हैं लेकिन स्वार्थ पर टिकी शोषण की प्रक्रिया निरंतर सदियों से चलती चली आ रही है। हर गुरू का कर्तव्य होता है कि वह अपने जीवन के अनुभवों तथा जानकारियों के आधार पर अपने शिष्यों को खुद से दो कदम आगे बढ़कर बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा दे। यही गुरू-शिष्य परंपरा की सार्थकता है।


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रजनीश के झा
जय जय भड़ास

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

भाई,आप जानते हैं न कि मनीषा दीदी के बारे में लोगों का क्या रवैया रहा है?बड़े से बड़े मुंह वाले दीदी के बारे में लिखने का साहस नही जुटा पाए चाहे कवि हो या गद्यलेखक....उनके ब्लाग पर जाना और उन्हें पढ़ना ये तो लिमिट हो गयी भाई,इतना तो बस गिने-चुने ही साहस कर पाए अब तक.....आप यकीन मानिये मैं सही कह रहा हूं और देख लीजिये कि इस पोस्ट पर कितने कमेंट मिलते हैं.....ऐसे रंगे सियारों की हम लोगों को आवश्यकता भी नहीं जो बस ऊपर से मनुष्य होने का रंग पोते रहते हैं लेकिन हुआ-हुआ करेंगे तो वही "नर-मादा" के बारे में और खुद को बड़ा विचारक मानेंगे....मानव की सम्पूर्णता का मापदंड का मात्र शारीरिक ही है यदि ऐसा है तो ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में शोधरत सांइटिस्ट स्टीफ़न हाकिंग तो मानव जैसा न हो कर मात्र अंगो-उपांगो का ढेर भर है....
जय जय भड़ास