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13.7.10

जीवन के चार आधार स्तम्भ

काम, क्रोध,लोभ, मोह
जीवन के चार
आधार स्तम्भ
सभी का जीवन

चलता है
इन्हीं के सहारे
जीवन की प्रत्येक

गति, नियति
होती है नियंत्रित
इसी से
पाप-पुण्य के कारण हैं
यही विकार
कर्मों की सजा और फल
मिलते हैं
इन्ही चार में से
किसी एक के कारण
कितने ही युद्ध हुए
निर्दोषों का खून बहा
अस्मत खिलौना

बन गयी
जीवन भर
इन्ही चार के हाथों
खेलते रहे हम
ये नचाती रहीं हमें
कठपुतली बनाकर
आंखों पर

चढ़ी रही पट्टी
कभी काम- क्रोध की
कभी लोभ-मोह की
कभी नहीं

निकल सके बाहर
इनके चंगुल से
इसीलिए

अंतिम यात्रा में भी
मिलता है
इन्हीं चार का सहारा
औरों को सम्भवत:
अपने सशक्त होने का
कराती है आभास
जीवन के प्रारम्भ से

अंत तक
जूझता है व्यक्ति
इन्हीं चार से
नहीं उबर पाता
शायद......

मैं भी न उबर पाऊं
तीन पर तो

विजय पाना है आसान
कैसे त्याग सकूंगी
तुम्हारा मोह
जिसके साथ

जीवन गुजारा
प्यार के चमन में
कभी चहके

पंछी बनकर
कभी खिले

फूल बनकर
पुनर्जन्म हो .. ..
तो यही प्रार्थना है
कोई भी योनि मिले
साथ और प्यार
तुम्हारा मिले
इसलिए नहीं चाहती
मेरी अंतिम यात्रा को मिले
चार कंधों का सहारा
मेरे लिए काफी है
तुम्हारी

बाहों का सहारा

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