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2.2.08

कृपया इसे न पढें

यशवंत भैया को पाय लागू
जब पहली बार भड़ास के बारे मी सुना था तो बड़ी उत्सुकता हुई थी इसे जानने की कि ये आख़िर है क्या बला ? के दिन तक सोचता रहा कि क्या लिखूं? कुछ समझ नही आता था कि लोग बाग़ इतना लिखते हैं तो उसमे मेरी बिसात क्या है? अंत में इस नतीजे पर पहुँचा कि आखिर भड़ास तो है भड़ास निकलने का माध्यम , तो क्यों न जो मन में है उसे ही लिख डाला जाये? सो लिख डाला है .अब जो है सो आपके सामने है.

2 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

पांय लागू परंपरा का मैं समर्थक तो नहीं पर जिस श्रद्धा और एलानिकाय तौर पर छू लिया है तो अब कहना ही पड़ेगा....जुग जुग जियो भाया....पत्रकार नाम से लिखने की बजाय ओरीजनल नाम से लिखेंगे तो ज्यादा सहज महसूस करेंगे। भगवान ने एक व्यक्तित्व दिया है तो उसे छिपाने की जरूरत क्या है, जो हैं सो हैं और वही सबके मामने हैं। बहुत अच्छा किया आपने चार लाइनें लिखकर। आगे फिर कोशिश करियेगा। कुछ कविता सविता, चुटकुला फुटकुला, संस्मरण वंस्मरण लिखियेगा। अपनी न बन पाए तो किसी दूसरे कवि की कविता पेल दीजियेगा, उसका नाम देकर...पर भड़ास निकालते रहियेगा जरूर। स्वागत है आपका। बाकी कौनो अउर तरह के दिक्कत हो तो अपने परम भड़ासी स्वामी भड़ासानंद डा. रुपेशानंद जी महाराज से संपर्क साधियेगा।

यशवंत

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

जै हो प्रभु ,यशवंत दादा ने जिन उपाधियों को मेरी पूंछ में बांध कर फ़ुलझड़ी लगाई है तो हम कूदने ही लगे लेकिन उनकी बात को मानिए जरूर कि लिखिए और खूब लिखिए....