ख़ुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है
रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है
इक कहानी ख़त्म करके वो बहुत है मुतमइन
भूल बैठा है कि आगे इक कहानी और है
बोरिए पर बैठिए, कु्ल्हड़ में पानी पीजिए
हम क़लन्दर हैं हमारी मेज़बानी और है
जो भी मिलता है उसे अपना समझ लेता हूँ मैं
एक बीमारी ये मुझमें ख़ानदानी और है
1.2.08
Harsimran Sethi, Sandhya Samachar
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5 comments:
bahut umda. kafi vajan hai aapki shayari me janaab
कलम चले तो जिगर खुश भी हो और छलनी भी
कलम रुके तो निजाम ऐ ज़िन्दगी भी रुक जाये
कलम उठे तो उठे सर तमाम दुनिया का
कलम झुके तो खुदा की नज़र भी झुक जाए
बहुत खूब लिखा सेठी साहब ........ एक शायर को एक शायर से मिल कर जो ख़ुशी होती है मुझे हुई है !!
अति सुन्दर है लिखे जाओ भाई पर इधर तो अपुन सिर्फ़ ऐसा मानता है कि भड़ास निकाली जाए ,ये साला इतना सुन्दर-सुन्दर साहित्यिक रचना तो गुंडे पोस्ट्स के बीच मं रजिया जैसी लग रही है इसे मेरी बुरी नजर न लगे.......
जय भड़ास
इतनी सुंदर कविता....... पर भड़ास किधर है ? नही है तो फिर इधर काई कू ?
आखिरी चार लाइनें तो वाकई अपने दिल के तार को झंकृत कर गईं। भई, बधाई और भड़ास में स्वागत। लगे रहिये....
यशवंत
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