Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

15.5.08

उस रात हादसे में बस


मैं मर चुकी हूँ
हर शख्स इसे तोड़ने को तैयार है,
मैं मर चुकी हूँ अब तो जीने दो,
की मेरे सिर पे छत नही दीवार है,

मिटटी की चादर ओढ़ कर
सदियों मैं ये सोचा करूँ
सर्दी नही लगती है अब
यहाँ मौसम मेरे अनुसार है,
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सिर पे छत नही दीवार है.

मेरी कब्र पे मेरे पेट के पास
धीरे धीरे से आकर जो
चावल का दाना रख गई,
उस चींटी को लगता है
वो मेरी तिमारदार है
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही दीवार है.

ना साँस लेने की परेशानी
न सोच की हैं उलझाने
सवालों और जवाबों से दूर
न राज है कोई
न कोई राजदार है
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही दीवार है.

बस तन्हाई है ज़रा सी,
पर मुझे पता है
आख़िर यहीं सब आयेंगे,
और कहाँ जायेंगे,
जो अब भी साँसों की
क़ैद में गरिफ्तार हैं,
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही दीवार है.

जब तक उसके पास थी,
वो रोज फूल देता था,
अब सिर्फ़ यह चोंकिदार है
फोल चढाता है और
देखता रहता है,
खैर वो भी प्यार था
और ये भी प्यार है.
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सिर पे छत नही दीवार hai

तेरे नाखूनों के निशाँ
जो मेरी कलाई पे थे
अब पिघल गए हैं
और सारे जख्म
अब गल गए हैं
ओअर ये आँखे अब भी
दागदार हैं,
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही दीवार है.

उस रात हादसे में बस
दो ही लोग थे,
फिर मेरा घर,मेरा समाज
पुलिस के सवाल,और
देश की सरकार,
अब क्या बातों कौन कौन
जिम्मेदार है!
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही दीवार है.

मर के इस लड़की ने
कैसे ये कहानी लिख दी,
गर आवाज नही है
तो किसकी जुबानी लिख दी?
सोचते रहो तुम
ये किस्सा
मजेदार है.
मैं मर चुकी हूँ
मेरे सर पे छत नही
दीवार है.

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

आशीष भाई,सबको आपकी तरह भटक कर अगर सही राह मिल जाए तो मजा आ जाए जिन्दगी का, कितनी गहरी सोच है आपकी; साधुवाद स्वीकारिये

Anonymous said...

आशीष भाई कितनी गहराई है, दोस्त गायब मत हुआ करो, इसे ही हमें डुबोते रहा करो

VARUN ROY said...

बहुत ही अच्छा मेरे भटके हुए हिन्दुस्तानी भाई. और रूपेश भाई ने ठीक कहा , काश सभी आपकी तरह भटके होते!
वरुण राय