बचपन मै जब बच्ची थी
गुड्डे ,गुडियों से खेला करती थी
खेल छोड़ो कुछ काम करो
कल अपने घर जाना है
बस सब कहा यही करते थे,
फिर जब थोडी बड़ी हुई
पढने की तब बारी आई,
पढो मगर सब काम करो
कल अपने घर जाना है
फिर वही रट सबने दोहराई थी,
बचपन छूटा काम किया,
पढ़ा मगर काम
सुबह- शाम किया।
जब किशोर अवस्था आई
सबने ब्याह की रट लगाई
अब अपने घर जाना है
थोड़ा नही सारा धयान धरो
मेने भी एक सपना बुन लिया
मेरा भी एक ''घर'' होगा,
सबसे ये सुन लिया
सपनो मै रंग सारे भर दिए
जिंदगी के कुछ नए,
रंग मेने भी चुन लिए
फिर ब्याह हुआ,
उस घर को छोड़
इस घर आ गई
एक संतुस्टी सी मन मै लहराई
खूब निहारा,खूब सराहा
सोचा चलो "अपना घर " मिल गया
सपनो के उन रंगो को
जीवन मै जब भरना चाहा
सब चीख उठे ,सब बोल उठे
अरे ! ये क्या कर डाला
अपने घर मै क्या
यही सीखकर आई हो
दुश्रे के घर कैसे रहना है,
क्या अभी तक,
यह समझ नही पाई हो
माथा ठनक उठा ,सर चकराने लगा
कुछ ही पलो मै मानो
दम सा निकलने लगा
" अपना घर" ?
कौन सा "अपना घर"
उस घर वाले कह्ते
ये है मेरा "अपना घर
और इस घर वाले कहते ,
वो है तेरा "अपना घर"
न वो घर मेरा
न ये मेरा है
आखिर कहाँ है मेरा
"अपना घर"
lekhika -----kamla bhandari
5 comments:
कमला जी ,
अपना घर तो सब का एक ही है जहाँ बारी-बारी से सबको जाना है . इस नश्वर संसार के किसी घर की चिंता आप क्यों करती हैं? बहरहाल कविता अच्छी बन पड़ी है. बधाई.
वरुण राय
varun ji sahi kaha aapne ki sabka ghar ek hi hai par ish sansaar me jab tak hai tab tak to apne ghar ki jarurat har kisi ko hoti hai .aur chhahat bhi.
aapne jis duvidha ko ubharaa haen us saey samaj mae har naari kaa vaasta haen . aap ka yae pryaas achchaa haen . bhadaaii
man kae aakrosh ko sunder shabdo sae bhee vyakt kiyaa jaa saktaa haen
भडासी हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना,
भडास निकालते जाना है, बस निकालते जाना है.
जय जय भडास
कमला जी,
महिलाओं की गंभीर समस्या को इतनी खूबसूरती से उभारने के लिए बधाई। ताउग्र खानाबदोशों की सी जिंदगी गुजारती महिलाओं की वेदना का सजीव चित्रण है।
Post a Comment