नहीं करेंगें समझौता हम मक्कारों से
मानवता के इन नकली ठेकेदारों से
अन्दर कुछ है बाहर से कुछ दिखलाते हैं
मौका पाकर चाल कपट की चल जाते हैं
रक्षक बनकर के जो भक्षक बन जाते हैं
विपदाओं को भी जो अक्सर भुनवाते हैं
नेता हों या हों ये अधिकारी के पद पर
होते हैं बदनाम हर जगह मक्कारी कर
अपना हो या पराया इनका नहीं है कोई
करतूतों से इनकी अपनी ही आंखे रोईं
-बलराम दुबे
कादम्बिनी
2 comments:
अभिव्यक्ति जी,
बढ़िया लिखा है, वैसे भी कादम्बिनी का मैं बचपन से कायल रहा हूँ. मगर एक बात खटकती है इस कविता में, सब को सलाह देकर पत्रकारों को छोर दिया. ये बात कुछ जचीं नहीं. क्यूंकि सबसे ज्यादा समझौतावादी तो ये पत्रकार ही होते हैं.
जय जय भडास
बस इतना ही कहूंगा बंधुवर। उम्दा अभिव्यक्ति
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