तब छोटे छोटे थे। होली आने के महीने भर पहले से ही रंग, पिचकारी और होली शुरू कर देते थे। खेलें किस पर? सबसे आसान था अपनी भौजाइयों पर रंग डाल लेना। वो खाना बना रही होती थीं। गए और धीरे से पिचकारी से पिच्च से मार दिया पीठ पर रंग और हें हें हें करते भाग लिए। भौजाई पलट कर बोलीं....रुका रुका, अब्बे तोहके बतावत हईं...। लेकिन कैसे बता सकती थीं, चूल्हे पर अदहन चढ़ा हुआ है, लिट्टी सेंकी जा रही है, गोइंठा तोड़ तोड़ चूल्हे में डाला जा रहा है, नाश्ता करने मरद लोग आते जा रहे हैं, खाते जा रहे हैं। दुवार पर बाबा के लिए भिजवाना है। सो भौजाई केवल डराने के लिए दो बात बोलकर चुप हो गईं और पीठ पर भीग चुकी साड़ी को झाड़ झूड़ कर फिर काम में लग गईं। जब वो खाली हुईं रसोईं से तो हम होली वोली भूलकर नहाने की तैयारी में जुटे थे। एकदम से उन्होंने पकड़ा, गोंद में उठा और ले जाकर पंडोहा वाली नाली में बिठा दिया। अरे, इतना भयानक। थे तो हम लोग बच्चे ही। इस कृत्य से त्योरियां इस कदर चढ़ी कि भौजाई को गालियां बकने लगे। अबकी भौजाई की बारी हें हें हें करने की थी। उनके हें हें से गुस्सा और बढ़ गया। उसी पंडोहा में हाथ डालकर नीचे का बिलकुल सबसे सड़ा माल उठाया और फेंक दिया भौजाई के मुंह पर। वो एक क्षण के लिए भौचक। फिर दांयें बांये देखा, मेरी मां न दिखीं तो मेरे जैसे नटखट की ठीक से खबर लेने की ठानी। उन्होंने पकड़ा, दोनों हाथों को अपने एक हाथ से दबोच लिया और पैरों को अपने एक पैर से दबा लिया, उसके बाद हाफ पैंट उतार कर नंगा कर दिया फिर ले जाकर उसी पंडोहा में डाल दिया। अब तो अपनी हालत बिलकुल खराब। इतना बड़ा दुस्साहस भौजाई ने किया। मुझे नंगा कर दिया। आठ साल का लौंडा मैं और भौजाई के बेटे मुझसे बड़े बड़े। वे मेरी हालत देखकर हें हें करने लगीं, और मैं जोर जोर से भों भों करते हुए रोने लगा।
उस भौजाई से अगले चार साल तक मैं नाराज रहा। मेरी इस कदर बेईज्जती कर दी। मुझे नंगा कर दिया। मुझे जलील किया...टाइप की सोच दिमाग में थी। उस भौजाई से किसी फागुन में फिर रंग नहीं खेला क्योंकि मेरे दिमाग में उनकी इमेज एक खतरनाक विलेन वाली बन चुकी थी। और वो हर बार मुझे छेड़तीं...का हो जसवंत, होली ना खेलबा...। इतना कहकर मुस्करातीं और मैं नफरत के अंगारे आंखों से बरसाते हुए, मुंह से कुछ गालियां भुनभुनाते हुए निकल लेता।
ज़िंदगी में सिर्फ वही एक होली थी जिसमें इतनी बेचारगी से मेरी बचपने की इज्जत भौजाई ने उतार दी थी।
भौजाई अब बुजुर्ग हो चुकी हैं और जब मैं सयाना हुआ तो उस दृश्य को याद कर मुस्कराने लगा। मैं उन्हें जल्द ही फोन करने वाला हूं....भौजाई , आ रहा हूं होली में, फिर नंगा करके पंडोहा में डालेंगी मुझे ? हर होली में ये बात कहता हूं उनसे तो वो पहले तो झेंपती हैं फिर जबरन का साहस व तेज चेहरे पर लाते हुए जवाब देती हैं...हां हां हां आवा, अबकी तोहके सगरे गांव के सामने नंगा करके गांड़ में गोबर पोतेंग.....। इतना सुनते ही मैं सरक लेता हूं...सोचता हूं...ई भौजाई हैं या यमरजा, हर दम नंगा करने पर तुली रहती हैं।
वो भाभी अब गांव से बाहर अपना मकान बनवा के रहने लगी हैं। सब लोग अलग अलग हो चुके हैं। उनका बड़ा बेटा मुझे बड़ा है। दोनों बेटों की शादी हो चुकी है लेकिन अब भी वो हम देवरों से होली खेलने के नाम पर एक से एक रणनीति बनाती हैं।
बड़ा मजा आता है गांव की होली में...।
जय भड़ास
यशवंत
(मेरे खयाल से दुनिया में इतने चूतियापे के गम हैं कि उसमें सहज होने के लिए पुरानी यादों को सबके साथ शेयर करके हम लोग फागुन का एकदम मस्त स्वागत कर सकते हैं। आपकी भी बचपन से जुड़ी कोई होली की दुखदायी या सुखदायी याद हो तो उसे शेयर करें)
16.2.08
होली... जब भौजाई ने नंगा कर पंडोहा में उलाट दिया था....
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4 comments:
aisi koshish mai bhi krunga yshvant bhai..aapne bada badhiya likha hai
यशवंत भइया आपने तो अभी से ही भड़ासियों को होली के रंग में रंग दिया
भैया यशवंत,
भौजाई बचपन में तो ऐसा करती हैं, मगर जब हम जवान होते हैं तो उनकी बुढ़ौती आ जाती है।
गुरु बच्चे देवर तो देवर फागुन में भौजाइयां चहक कर गाने लगती हैं-भर फागुन बुढ़बा दीयर लागे।
दादा,हम तो ससुरे इसी आस में खूसट हो गए कि कब कोई मिले जिसे भौजाई तो कहें पर साली बलिहारी अक्ल की कि जितनी मिली उन्हे बहन जी कह कर खुद ही कुल्हाड़ी पर पैर मार लिए...
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