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28.2.08

हिजड़े प्रेस में हैं या प्रेस वाले हिजड़े हैं ???

इस बार मथुरा वृंदावन की यात्रा अपनी कार से की। एक मित्र के साथ। सूंय सूंय करते हुए 120 की स्पीड में। रास्ते में रुकते, खाते, चबाते, गाल बजाते....पता ही नहीं चला कब पहुंच गए। दो दिन बाद वहां से आज दिल्ली पहुंचा तो नोएडा, सेक्टर 12-22 के पास रूका। यहां मेट्रो हर्ट हास्पिटल है, बगल में दारू शाप है, थोड़ी दूर पर आंटी की मशहूर नानवेज शाप है, बड़ा सा पार्क है, पराठे वाली की लजीज दुकान है....माने यह जगह मेरी प्रिय जगहों में से एक है। मयूर विहार फेज थ्री वाले अपने घर से निकलने के बाद दाएं बाएं कहीं निकलने का मन होता है तो इसी अड्डे पर पहले पहुंचता हूं। सुबह के वक्त पहुंचने पर लजीज पराठे खाने के बाद पार्क में देह सीधा कर लेटने में बड़ा आनंद आता है। यहां ढेर सारे लोग सोते व गपियाते मिल जाएंगे।

आज जब दिल्ली पहुंचे तो घऱ पहुंचने से पहले इसी अड्डे पर रुका। पराठे खाया। पान खाया। पार्क में थोड़ी देर के लिए बैठ लिया। गपियाने बतियाने के बाद जब चलने को हुए तो फिर पान खाने के लिए दुकान पर रुके। बगल में हिजड़े साथियों की हलचल दिखाई दी। कोई आ रहा है तो कोई जा रहा है। मेरी उत्सुकता बढ़ी। दाएं बाएं नजर दौड़ाने पर पता चला कि दो गाड़ियां फुल हैं इन साथियों से। दोनों गाड़ियों में एक एक ढोलक। साड़ी और सलवार सूट पहने इन हिजड़ा साथियों को देखते हुए पहले तो डा. रूपेश श्रीवास्तव की शिष्या मनीषा याद आईं जिन्हें आजकल डाक्टर साहब ब्लागिंग सिखा रहे हैं। फिर मुझे वो शब्द याद आया जिसे डा. रूपेश इन लोगों के लिए यूज करते हैं, लैंगिक विकलांग। यह शब्द वाकई सही शब्द है जो इनकी स्थिति को हू ब हू अभिव्यक्त करता है।

पर यह क्या? इन दोनों गाड़ियों पर तो प्रेस लिखा है !! कहीं ये हिजड़े प्रेस वाले तो नहीं....?? या कहीं प्रेस वाले हिजड़े तो नहीं हो गए ?? माजरा क्या है ?? मैंने अपनी उत्सुकता अपने साथी को बताई तो उन्होंने मेरी बात पर हंस दिया। बोले, बड़ा जोरदार है यह वाक्य....कहीं प्रेस वाले हिजड़े तो नहीं, कहीं हिजड़े प्रेस वाले तो नहीं ??

कुछ यूं भी कहा जा सकता है....प्रेस की जो हालत है भइया, उसमें तो अब हिजड़े भी प्रेस वाले बन गए हैं...या प्रेस की हालत ये है कि प्रेस के काम के लिए हिजड़े भर्ती किए जा रहे हैं....या प्रेस इतना आसान है कि अब हिजड़े भी प्रेस में घुस जा रहे हैं....

ढेर सारे कुतर्क गढ़े जा सकते हैं लेकिन एक बात तो सच है कि प्रेस शब्द का गाड़ियों पर जिस कदर गैर प्रेस वाले लोग इस्तेमाल करते हैं, वो सरासर गलत है। सिर्फ इसलिए कि पुलिस वाले रोकेंगे नहीं, ट्रैफिक वाले टोकेंगे नहीं, चोर-उचक्के झांकेंगे नहीं, इस कारण हर कोई प्रेस लिखा लेता है गाड़ी पर।

मेरे साथ थोड़ा उलटा रहा है। 12 वर्ष के पत्रकारीय जीवन में कभी अपनी गाड़ी पर प्रेस नहीं लिखवाया। कभी एकाध बार स्टीकर चिपकवा लिया हो, चुनाव या दंगे के समय तो अलग बात है वरना पता नहीं क्यों प्रेस लिखवाना कभी पसंद नहीं आया। इसके पीछे एकमात्र वजह शायद यही है कि असली प्रेस कर्मी को कभी अपनी पहचान बताने के लिए प्रेस कार्ड नहीं दिखाना पड़ता और प्रेस शब्द नहीं लिखाना पड़ता। पत्रकारिता अगर आपकी आत्मा और देह में हैं तो वो आपके चेहरे व शब्दों व बोली से भी टपकती है, दिखती है।

खैर, माफ करना, अगर किसी को हिजड़े व प्रेस में तुलना करने पर बुरा लगा हो क्योंकि ये तुलना करने का मामला नहीं बल्कि प्रेस शब्द के दुरुपयोग का मामला है।

वैसे मेरे दिल से पूछेगे तो यही कहूंगा कि हिजड़े जितने इमानदार व साहसी होते हैं, प्रेस में 90 फीसदी से ज्यादा लोग उस लेवल के नहीं होंगे। बोले तो अगर प्रेस वाले हिजड़ों जितना मिशनरी, साहसी व इमानदार व दमदार हो जाएं तो प्रेस का कल्याण हो जाए। पर यहां तो तेलुओं, चमचों, क्लर्कों, चारणों, भाटों, बलात्कारियों, व्यभिचारियों, बौद्धिक दिवालियों, दलालों, अशिक्षितों, छिछोरों, बेवकूफों... का ही जमावड़ा है जो प्रेस के नाम पर हर वो गलत काम कर रहे हैं जो प्रेस वाले को न करने के लिए कहा गया है, बताया गया है, समझाया गया है।

लगे रहो .....

जय भड़ास
यशवंत

4 comments:

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

यशवंत भाई,
आपकी पोस्ट पढ कर कमेंट पहली बार कर रहा हूं ,पर शायद ही कोई पोस्ट हो,जो पढी न हो.

मन खुश हो जाता है,कहें तो दिल खुल जाता है. याद होगा जब वो फार्म हाउस वाली (अंग्रेज़ी) ब्लोग्गर मीट में मिले थे ,तो मैने कहा भी था कि आपकी लेखनी का प्रसंशक हूं मैं.

रोज़ाना की तरह फिर मजा आ गया.
बहुत गम्भीर बात कह डाली आपने मज़ाक मज़ाक में.

लोग समझें तो अच्छा ,वरना आपने तो कह ही दिया. अच्छा किया.
बधाई.

1996 से 2001 के बीच जब मैं एक मलयाली दैनिक के लिये लोकसभा व राज्यसभा की प्रेस गैलरी से झांक कर खबरें सूंघा करता था, उस दौरान अपनी गाडी पर संसद मे प्रवेश वाला बिल्ला ( लेबल) तो लगाता था, परंतु "प्रेस" कभी नहीं लिखवाया.

भई ,पढने में मज़ा आता है.ऐसे ही बेलाग, बेलौस ,बेबाक और बिन्दास लिखते रहिये.
शुभकामनायें
(भारतीयम)

विनीत कुमार said...

सरजी, आपके दिमाग में ये सवाल आया कि नहीं कि कहीं लोग प्रेस में जाकर तो हिजड़े नहीं हो जाते। वैसे हिजड़ों से थोड़ा साहस लें ले तो मजा आ जाए, एकदम ट्रू जर्नलिज्म होगी।

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,मैंने एक बार दैनिक जागरण ८ नवम्बर २००३ के अंक में पढ़ा था कि कोई सज्जन हैं सन्तशरण मौर्य नाम के जो हुसैनबाद चौक,मोहिनी का पुरवा से देश की पहली किन्नर पत्रिका निकाल रहें हैं ;लेकिन मुझे यह नहीं पता चल पाया कि वह दैनिक जागरण कहां का संस्करण था क्योंकि वह मुझे लोकल ट्रेन में टुकड़े के रूप में मिला था। पत्रकारिता किसी की बपौती तो है नहीं तो फिर देश की मनीषा दीदियों को भी आगे आकर प्रेस का षंढत्व दूर करने देना चाहिए । आपकी बात ने बहुत लोगों के पिछवाड़े अंगार लगा दिया होगा......
विनीत भाई की बात भी विचारणीय है जरा सोचकर देखिए....
जय जय भड़ास

mrit said...

प्रिय भड़ासी मित्रों मैंने हाल ही में में बी एस एन एल का अनलिमिटेड होम प्लान कनेक्शन लिया है और काफी दिनों से कभी-कभी भड़ास पर आप सभी मित्रों के विचार पदकर मैं भी सोचता था कि मैं भी अपनी भड़ास कब निकाल पाउँगा क्योंकि जब जब अपना"कनेक्टिंग इंडिया" की दया द्रिष्टि ना हो मैं ना तो आप मित्रों के विचार पढ़ सकता हूँ ना ही पोस्ट लिख सकता हूँ.खैर ये तो सिर्फ ट्रायल है मेरी और बी एस एन एल की लंबी कहानी कल सुबह शायद पोस्ट कर सकूं क्योंकि मेरा भारत महान! जय जय भड़ास!
मृत्युंजय
9406222525
mrityuynjay@gmail.com