Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

8.1.10

तरुणाई के पार

उस
तरूणाई के अंतिम पहर
जब मैने उसे
ठठाते-उछलते-कूदते-धप-धड़ाम
गिरते उठते देखा था
मगर
सरलता के अवसान
की उस घड़ी
के साथ ही
वह लड़का अब बड़ा-सा दिखता है
शबल पृष्ठों से भरी मेगज़िन को वह
बेहिचक पीछे से पलट
सस्मित देखता है !
प्रणव सक्सेना "अमित्रघात "

1 comment:

Anonymous said...

"तरुणाई के पार" जिसे जो सोचना है सोचे और समझे. प्रणव जी मुझे तो सारगर्भित और बहुत प्रभावशाली रचना लगी. बधाई.