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18.2.08

जा जाओ लड़कियां.. हम बुरे लोग हैं!!!

((जा जाओ भड़ासियों लिखने वाली पूजा सिंह को सीधे संबोधित करते हुए मैं कुछ कहना चाहता हूं। यह मेरी निजी राय है, भड़ास व भड़ासियों के बारे में, इसमें जो फिट न बैठे, वो हमें गरिया सकता है, भड़ास को गरिया सकता है, दुखी होकर भड़ास से बाहर जा सकता है, लेकिन वो उसका/उसकी खुद का निर्णय होगा, भड़ास या मेरा या किसी और भड़ासी का उससे कोई लेना देना नहीं। एक बार और कह दूं, ये मेरी निजी राय है जो मैं बताने जा रहा हूं। डाग्डर साहब, हरेप्रकाश जी, अंकित माथुर, मांधाता सिंह, बिल्लोरे, अबरार, मयंक, मनीष आदि ढेरों सक्रिय भड़ासी साथी इससे अपनी नाइत्तफाकी रख सकते हैं, खुलेआम। पर भइया मेरे दिल में भड़ास के प्रति कुछ भड़ास भरी हुई है, पूजा की पोस्ट के चलते तो सोच रहा हूं उगल ही दूं.....कुछ गद्य रूप में, कुछ पद्य रूप में..., सीधे पूजो से मुखातिब होते हुए, संबोधित करते हुए....यशवंत))

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प्रिय पूजा

आपने ढेर सारे सवाल उठाए हैं। ये सवाल सिर्फ आपके ही नहीं, कई लोगों के है। आपने तो साहस करके उसे शब्दों का रूप दे दिया और सबके सामने ला दिया, भड़ास के मंच के ही जरिए। पहले तो आपके इस साहस के लिए आपको ढेर सारा साधुवाद देना चाहूंगा, कि मर्दों की इस भीड़ में आपने अपनी बात पूरे दमखम से रखी, बिना इस बात की परवाह किये की भड़ासियों को ये बात अच्छी लगेगी या बुरी। आप जैसे लोगों के इस साहस से ही तो कुछ उम्मीद बंधती है कि इस बौद्धिक जुगाली के इस दौर में कई लोग हैं जो साफ साफ कहने की हिम्मत रखते हैं।

पूजा, आपको बुरा तो लगेगा, और लगना भी चाहिए, लेकिन किसी को बुरा लगेगा, इस बात को सोचकर हम दिल की बात कहने से खुद को रोकेंगे नहीं, और वो ये कि भड़ास आप जैसी अच्छी लड़कियों के लिए है ही नहीं। हम भड़ासी बुरे लोग हैं। आपने पढ़ी होगी, भड़ास पर ही बाईं तरफ टंगी कविता, जिसे भड़ास की सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित किया गया है। और सही तो ये भी है कि हम वाकई बुरे लोग हैं, हम भड़ासी...


थोड़े शराबी हैं,
थोड़े अराजक हैं,
थोड़े लंठ हैं,
थोड़े लुच्चे हैं,
थोड़े क्रिमिनल हैं,
थोड़े बलात्कारी हैं,
थोड़े हत्यारे हैं,
थोड़े देहाती हैं,
थोड़े गंवार हैं,
थोड़े झूठे हैं,
थोड़े क्रूर हैं,
थोड़े उजबक हैं,
थोड़े डरपोक हैं,
थोड़े हिंसक हैं,
थोड़े फ्रस्टेट हैं,
थोड़े डिप्रेस्ड हैं,
थोड़े मुंहफट हैं
थोड़े अनपढ़ हैं
थोड़े विकलांग हैं,
थोड़े रुवांसे हैं,
थोड़े बेचारे हैं,
थोड़े जानवर हैं,
थोड़े लंगूर हैं,
थोड़े बंदर हैं,
थोड़े कुत्ते हैं,
थोड़े कमीने हैं,
थोड़े गदहे हैं,
थोड़े भेड़ हैं
थोड़े बकरी हैं,
थोड़े कट्टरपंथी हैं,
थोड़े पोंगापंथी हैं,
थोड़े बेवकूफ हैं,
थोड़े अनप्लांड हैं,
थोड़े सतही हैं,
थोड़े छिछले हैं,
थोड़े अगंभीर हैं,
थोड़े मजबूर हैं,
थोड़े कुंठित हैं,
थोड़े पीड़ित हैं,
थोड़े अकेले हैं,
थोड़े अश्लील हैं,
थोड़े गोबर हैं,
थोड़े घृणित हैं,
थोड़े अपरिपक्व हैं,
थोड़े परेशान हैं,
थोड़े हैरान हैं,
थोड़े नादान हैं,
थोड़े सताये हैं,
थोड़े गरियाये हैं,
थोड़े उजियाये हैं,
थोड़े बौराये हैं,
थोड़े बौराहे हैं,
थोड़े बकलोल हैं,
थोड़े गोलमोल हैं,
थोड़े काहिल हैं,
थोड़े काइयां हैं,
थोड़े बेशरम हैं,
थोड़े ढीठ हैं,
थोड़े कायर हैं,
थोड़े लिजलिजे हैं,
थोड़े बददिमाग हैं,
थोड़े बेचारे हैं,
थोड़े किनारे हैं,
थोड़े खिसियाये हैं,
थोड़े पिनपिनाये हैं,
........
........
.......
और.....
इसी थोड़े थोड़े
से बनकर हम
बन गए हैं
एक अपूर्ण आदमी
जिसे तलाश है
पूर्णता की....
अनचीन्हे राह
अनजाने विचार
अलमस्त दोस्त
के साथ कदमताल
करते हुए तलाश
रहे हैं कुछ
इस सड़ी सभ्यता के
घुप्प अंधेरे में इधर-उधर
हाथ-पांव मारते हुए

पर ये सच है
कि हम
इस सड़ी हुई सभ्यता
के गले हुए विद्वानों की तरह
कतई हिप्पोक्रेट नहीं हैं, कतई
सौ फीसदी घोषित शरीफ नहीं है

क्योंकि बदबूदार सभ्यता के सांचे में ढले
चमचमाते सच को बूझा है हमने
हर उस क्षण जब निकले था गांव से
कमाने, जानने, बनने, बूझने, लड़ने,दिखने, दिखाने..
तब छले गए हर क्षण
इन चमचमाते सचों द्वारा
और नतीजा ये हुआ कि
हम हर क्षण थोड़े बुरे बने
वो हर क्षण थोड़े सुर्ख स्वर्ण हुए

हम भड़ासी
सौ कैरट सच्चाई से कहते हैं कि
हम गंदे, बुरे, बदमाश, गंवार
लोग हैं
और जीना चाहते हैं
अपनी पूरी असभ्यता
सभ्यता के सिंहासन पर लात रखकर
अति असभ्यता के साथ
ताकि सभ्यता की सड़न
से उठ रही मारक गैसों
की मात्रा हो सके कम

माफ करो
पूजा ममता मीरा मेघा गरिमा...
तुम जो भी जहां भी हो
बनी रहना अच्छी बच्चियां

तुम शरीफ लड़कियां हो
अच्छी लड़कियां हो
सभ्य लड़कियां हो
चली जाओ यहां से
सभ्यता की किसी शरीफ दालान में
जहां तुम्हारी अच्छाइयों का हवाला देकर
अच्छे लोग तुम्हें पूजते हों या पीटते हों
पर बराबरी पर नहीं जीने देते

और जब जाओगी न
तो करोगी हम पर एहसान
ताकि हम तुम्हारे डर से
बकने से बच जाएंगे अच्छी अच्छी बात
और जाने से रह जाएंगे
हिजड़ों की सभ्यता के साथ

जीने दो हमें दो कौड़ी की ज़िंदगी
दो कौड़ी की बातें करते हुए
क्योंकि हर तरफ गंभीर और सच्ची बहसें चल रही हैं
और हमें उनसे उबकाई आती है

जीने दो हमें हलकी हलकी बातें करते हुए
हल्केपन के साथ भारी लग रही जिंदगी
क्योंकि हर तरफ हैं गूढ़ व गंभीर लोग गरिष्ठ विमर्श मथते हुए
और हमें उन पर थूकने का मन करता है...

हम बंद दरवाजे हैं, खुल रहे हैं,
अभी और खुलेंगे
और दिखेगा हमारे अंतस का गहन अंधकार
जो सदियों से इकट्ठा है
तब हम खुश होंगे....
प्रसन्न होंगे...
जैसे मिल रहा हो मोक्ष
तर गई हो आत्मा

तब जाग्रत कुंडलिनी का सुख
महसूस कर सकेंगे
हम गंवार लोग
जिसे सभ्यता ने सभ्य बनाने के चक्कर में
और ज्यादा बेवकूफ बना दिया....


पूजा, साफ साफ कहना लिखना बोलना मुश्किल होता है। आपने लिखा है कि बाईलाइन को तरसते पत्रकार यहां एकदम से छा जाना चाहते हैं....इन्हें छाने दो यार। इन्हें जीने दो भाई। कहीं तो लगे कि हां ये छा गए। कहीं तो आकाश को अंकवार में भर लेने दो। भड़ास सिर्फ एक चूतियापा है। हम नहीं चाहते यह ब्लागिंग के इतिहास का हिस्सा बने। लोग इसे किसी अच्छे वजह से जानें। हम नहीं चाहते यह अच्छी और गुडी गुडी कहे पढ़े लिखे जाने के लिए चर्चित या अचर्चित हो....। हम तो बस जी लेना चाहते हैं, अपना कुछ पल साफ साफ कह कर, उगल कर। ताकि हर दिन के बाकी घंटे थोड़े ज्यादा खुले व सहज भाव से गुजार सकें।

भड़ास पर कई साथी मेंबर बनते ही सिर्फ इतना लिखकर पोस्ट कर देते हैं....सभी भड़ासियों को मेरा नमस्कार, मैं हूं फलां.....। और आपको पता है, मुझे ये लाइनें इतनी अच्छी लगती हैं, इससे महसूस होता है कि चलो एक और गूंगे साथी को ईश्वर ने आवाज मुहैया करा दिया है। और जब बच्चा बोलना शुरू करता है तो पहले तुलतुलाता है, हकलाता है फिर जमाने के गम के साथ जीते सीखते साफ साफ बोलना शुरू कर देता है। तो ये मानिए कि हम बच्चे भड़ास पर हकलाना, तुलतुलाना सीख रहे हैं और यह स्थिति अपरिपक्वत होती ही है।

पूजा, उम्मीद है आप मेरी बातों का बुरा नहीं मानेंगी क्योंकि आपने साफ साफ लिखा तो मैंने भी साफ साफ लिखा है। अब ये आप पर है कि, इसके बावजूद आप भड़ास की मेंबर बनी रहना चाहेंगी या नहीं चाहेंगी। आप बने रहें, तो हम जैसे औघड़ भंडारी प्रसन्न रहेंगे, बनी न रह सकीं तो थोड़े दिनों के ग़म के बाद वक्त के मरहम के जरिए फिर जीना सीख लेंगे, आपके बिना।


पत्र में लिखी हुई कमियों-खामियों को सुधारकर पढ़ना, गल्तियों को क्षमा करना।

आपका
एक भड़ासी
यशवंत

6 comments:

सीता खान said...

इस सड़ी हुई सभ्यता
के गले हुए विद्वानों की तरह

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,आप हमेशा की तरह हैं तो मैं हमेशा अपनी तरह हूं मैं अमीबा जैसा नहीं हूं । आपके अंदर दबी पीड़ा को आपने कितना दबाया गंदे,बदबूदार चिथड़ों के पीछे पर निकल ही आती है इन शब्दों से
माफ करो
पूजा ममता मीरा मेघा गरिमा...
तुम जो भी जहां भी हो
बनी रहना अच्छी बच्चियां

तुम शरीफ लड़कियां हो
अच्छी लड़कियां हो
सभ्य लड़कियां हो
चली जाओ यहां से
सभ्यता की किसी शरीफ दालान में
जहां तुम्हारी अच्छाइयों का हवाला देकर
अच्छे लोग तुम्हें पूजते हों या पीटते हों
पर बराबरी पर नहीं जीने देते

मैंने अब तक आपको जितना जाना है उतना लगता है कि मै खुद को ही समझ रहा हूं ,मैं जिन भावों को विचारता हूं आप उन्हें शब्द देकर उकेर देते हैं और चूतियापे की खुली घोषणा करने वाले जोकर का गंभीर चेहरा झलकने लगता है ,उस पिता का चेहरा दिखने लगता है जो अपने डगमगा कर चल्ने वाले शिशुओं के लिये घोड़ा बन कर चलता है ।
जय जय भड़ास

धीरज चौरसिया said...

बिल्कुल सही, सभ्यता के छद्म आवरण ओढ भाषण देने वालो के लिये ये जगह उपयुक्त नही कृपा कर दुसरी उपयुक्त जगह तलाशे और क्षमा करे हमे, हम खुश है
जय भडास

Anonymous said...

yashvant dada varshon bad sachmuch aj royaa hun.... isi tarah prerna dete raho.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मनीष भाई ,सच्ची बताना भौं-भौं करके रोए हैं या साईलेंट में फ़ुस-फ़ुस करके,आंसू निकले थे या बस आवाज कर रहे थे ? जरा खुल कर बताओ न मेरे भाई हम आपके रुदन का पैथोलाजिकल टैस्ट करेंगे कि ये रोना खुशी के कारण है या दुःख के कारण या अकारण?????
जय जय भड़ास

subhash Bhadauria said...

यशवंतजी
एक शेर आप और तमाम भड़ासी यारों को पेश कर रहा हूँ-
ढ़ूढ़ी बहुत शरीफ़जादियों के घर मगर,
तहज़ीब की किताब तवाइफ के घर मिली.

कौन सी शरीफ़जादियों की बात कर रहे हो
जो घर जल्द आने पर कहती हैं
इतनी जल्द आगये.
या देर से आने पर कहती हैं
शरीफ़ों के आने का वख्त है.
और तवाइफ़ क्या फ़र्माती है-
वल्लाह आप को देखने को तरस गये हैं हुजूर.
वो सभी को एक सा कहती हैं पर सकून मिलता है यार.
सो शरीफ़जादियों के खेल तुम्हें सब मालूम है,गुरू हमारा मुँह मत खुलवाओ तुम्हीं भैरा रहे थे भड़ास की भाभी के लिये.अब डंडा किया सो टसुये बहाने बैठ गये.
भड़ासी पहुँचे हुए संत हैं सिद्ध हैं तभी उनकी अनर्गलभाषा में भी ज़िन्दगी के पैग़ाम मिलते हैं.
जो ढोंगी गिद्धों ऋषियों की भाषा में नहीं वे अपना अन्दर कचरा भरे झूटे उपदेश देते हैं.
सो अब तुम आँसू पोंछो अपनी औरिजनल स्टाइल में आओ.
मुझे यही डर था कि कोई मैनका तुम्हारा तप भंग न कर दे.सो वैसा ही हुआ चू गये महाराज.जरा सर्च करो यार ये मैनका या रंभा या गंगा किसी लुच्चे इंद्र ने तो नहीं भेजी.जो पापियों को उद्धार करने आ गयी.
यार तुम रोते अच्छे नहीं लगते.
हमारी ग़जल के कुछ अशआर से बात पूरी कर रहा हूँ.
अब कर के यों रुस्वा तू तसल्ली न दिया कर.
तू कत्ल मुझे कर मगर ऐसे न किया कर.

हम प्यासे ही मर जायें तुझे क्या पड़ी इससे,
तू जाम मुहब्बत के रकीबों से पिया कर.

एक पैग मारो बेवफा के नाम का और फ्रेश हो जाओ.जय भड़ास.