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25.5.08

तो मुझमें कौन सांसें ले रहा है?

मेरे अंदर कोई मुझसे जुदा है
मैं चुप हो जाऊं तो वो बोलता है

किसी का हल किसी का मसअला है
मुहब्बत अपना अपना तजुर्बा है

अगर सब आरजुएं मर चुकी हैं
तो मुझ में कौन सांसें ले रहा है

बदलते ही नहीं नज़रें कभी वो
बहुत अच्छा है जो नाआशना है

बहर गाम आ रही है एक आहट
मुसलसल कोई पीछा कर रहा है

दुखों ने राब्ते कायम किये हैं
वर्ना कौन किसको चाहता है

मेरा भी चाहने वाला था कोई
वो बिछड़ा है तो अंदाज़ा हुआ है

....................................रियाज़

4 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

रियाज भाईजान,जरा गौर से देखेंगे तो आपके भीतर सांस लेने वाले उस शख्स को पहचान जाएंगे, वो मैं हूं जो हर जिन्दा इन्सान के भीतर कसमसा रहा हूं मुखर होने को लेकिन आपकी निजी दुविधा में दबा पड़ा हूं। यदि कभी मौका दें तो मैं ही आपके भीतर से बाहर आकर दुनिया देखना चाहूंगा..
जय जय भड़ास

Anonymous said...

रियाज़ भाई,
ये ही तो हमारा भडास है, जो हर इंसान में है. बस निकालो निकालो और निकल दो.
जय जय भडास

VARUN ROY said...

शानदार है रियाज भाई.
वरुण राय

अबरार अहमद said...

रियाज भाई, बहुत बढिया। लिखते रहिए।