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2.2.08

सच ने नहीं, झूठ ने दिया संबल...सर्वश्रेष्ठ भड़ासी कविता का अंतिम भाग

(मुझे अब तक की सर्वश्रेष्ठ भड़ासी कविता जो लगी, उसका पहला पार्ट कल आप लोगों ने पढ़ा होगा, हमें नपुंसक होने से बचाया, बददिमाग और बुरे माने गये साथियों ने शीर्षक से। जिन लोगों ने नहीं पढ़ा हो, उपरोक्त शीर्षक को क्लिक कर पढ़ लें, फिर आज दूसरा और अंतिम पार्ट पढ़ें, जो नीचे दे रहा हूं। कवि का नाम है, हरेप्रकाश उपाध्याय। मैं इनसे मिला नहीं हूं, इनके बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखता पर इन इस एक कविता को पढ़कर मैं इनका फैन हो गया। भई वाह, क्या लिखा है। उन शुद्धतावादियों, परंपरावादियों, यथास्थितिवादियों, पोंगापंथियों....को इस कविता को जरूर पढ़ना चाहिए और सोचना चाहिए कि उनके इस सिस्टम में सहज चीजें सहज तरीकें से क्यों नहीं मिल पातीं। अगर कोई भी भड़ासी साथी हरेप्रकाश उपाध्याय जी के बारे में कुछ जानता हो तो वो जरूर जानकारी दे। इतना बता दूं कि ये कविता इससे पहले कई मैग्जीनों में भी प्रकाशित हो चुकी है...जय भड़ास, यशवंत)


सच ने नहीं, झूठ ने दिया संबल
जब थक गए पांव
झूठ बोलकर हमने मांगी मदद जो मिली
झूठे कहलाए बाद में
झूठ ने किया पहले काम आसान
आत्महत्या से बचाया हमें उन छोरियों के प्रेम ने
जो बुरी मानी गईं अक्सर
हमारे समाज ने बदचलन कहा जिन्हें
बुरी स्त्रियों और सबसे सतही मुंबइया फिल्मों ने
सिखाया करना प्रेम
बुरे गुरुओं ने सिखाया
लिखना सच्चे प्रेम पत्र
दो कौड़ी के लेमनचूस के लालच में
पड़ जाने वाले लौंडों ने
पहुंचाया उन प्रेम-पत्रों को
सही मुकाम तक

जब परेशानी, अभाव, भागमभाग
और बदबूदार पसीने ने घेरा हमें
छोड़ दिया गोरी चमड़ी वाली उन
खुशबूदार प्रेमिकाओं ने साथ

बुरी औरतों ने थामा ऐसे वक्त में हाथ
हमें अराजक और कुंठित होने से बचाया
हमारी कामनाओं को किया तृप्त

बुरी शराब ने साथ दिया बुरे दिनों में
उबारा हमें घोर अवसादों से
स्वाभिमान और हिम्मत की शमा जलाई
हमारे भीतर के अंधेरों में
दो कौड़ी की बीड़ियों को फूंकते हुए
चढ़े हम पहाड़ जैसे जीवन की ऊंचाई
गंदे नालों और नदियों का पानी का आया वक्त पर
बोतलों में बंद महंगे मिनरल वाटर नहीं
भूख से तड़पते लोगों के काम आए
बुरे भोजन

कूड़े पर सड़ते फल और सब्जियां
सबसे सस्ते गाजर और टमाटर
हमारे एकाकीपन को दूर किया
बैठे-ठाले लोगों ने
गपोड़ियों ने बचाया संवाद और हास्य
निरंतर आत्मकेंद्रित और नीरस होती दुनिया में
और जल्दी ही भुला देने के इस दौर में
मुझे मेरी बुराइयों को लेकर ही
शिद्दत से याद करते हैं
उस कसबे के लोग
जहां से भागकर आया हूं
दिल्ली !


--हरेप्रकाश उपाध्याय

(यह कविता का दूसार व अंतिम पार्ट है। इससे पहले की कविता पढ़ने के लिए क्लिक करें....हमें नपुंसक होने से बचाया, बददिमाग और बुरे माने गये साथियों ने)

5 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

धांसू और गहरा लेखन जो आत्मा तक की पहुंच रखता है.....

मयंक said...

गहरा

।। ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी ।। Dhyanendra M. Tripathi ।। said...

दो कौड़ी के लेमनचूस के लालच में
पड़ जाने वाले लौंडों ने
पहुंचाया उन प्रेम-पत्रों को
सही मुकाम तक॰॰

ये कविता सच्चाइयों के मुकाम से होते हुए, अँधेरों में रोशनी बीनती है॰ एक बेहतरीन कविता जो बेबाक है और हलफा मचा देती है हमारे दिलो-दिमाग पर॰ हरेप्रकाश भाई को साधुवाद॰

संदीप कुमार said...

यशवंत भाई,
हरेप्रकाश के बारे में मेरी जानकारी के अनुसार वे पुरबिहा हैं हमारा देश नाम का ब्लॉग चलाते हैं. हिन्दी के श्रेष्ठ नवोदित कवि और साहित्यकार हैं.
अभी कादम्बिनी से रोटी पानी का जुगाड़ है बहुत जालिम चीज़ हैं.

Unknown said...

sb bhai logon ko nmste, shukriya...
mere drd ko aap sb ne snjha shukriya...
mera ek snkln bhartiy jnanpith me atka hai, dua kren ki jldi chhp jae, nam hai-BURAI KE PAKSH MEN