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6.12.08

आतंकवाद से संघर्ष: भारतीय महाग्रंथों के संदर्भ में

आज आतंकवाद हमारे सामने सुरसा की तरह मुंह फैलाए खड़ा है. आज की सबसे ज्वलंत समस्या है- 'आतंकवाद'. इस समस्या से हम पौराणिक काल से जूझते आ रहे हैं और हर युग में कोई ना कोई आकर हमें इस गंभीर समस्या से निजात दिलाता आया है. त्रेतायुग में रावण के आतंक से राम ने जिस तरह मानव-जाति को राहत पहुंचाई, उसी तरह द्वापरयुग में जरासंध एवं कंस जैसे कई आततायियों को समाप्त करके इस समस्या का अंत किया. रामायण और महाभारत दोनों ही महाग्रंथ आतंकवाद से संघर्ष के रूप में निरूपित हैं.

त्रेतायुग में रावण का आतंकवाद चरम-सीमा पर था, आतंकियों की शाखाएं-प्रशाखाएं दक्षिण से पूरे उत्तर भारत तक फैली थी। खरदूषण, मारीचि, सुबाहु और ताड़का जैसे आतंकवादी उसके दल के स्वयंभू कमांडर थे. इन स्वयंभू कमांडरों के अधीन कार्यरत हजारों आतंकवादी मासूम जनता एवं साधु-संतों पर अकसर कहर ढ़ाते रहते थे. इन आतंकवादियों का समूल नाश करने के लिए अयोध्या के युवराज राम ने संकल्प लिया और उत्तर भारत में स्थित आतंकवादियों के छोटे-छोटे गढ़ों को ध्वस्त करते हुए अंतत: मास्टर-माइंड आतंकवादी रावण के गढ़ लंका पर धावा बोलकर उसके आतंक का समूल नाश किया।

उसी तरह महाभारत काल में जरासंध महाआतंकवादी था. उसने अनेक राज्यों के अधिपतियों को अपनी कारागार में डाल रखा था. उस महाआतंकवादी के सहयोगी शिशुपाल, शाल्य, दंतवक्र और कंस आदि थे. इनकी आतंकवादी गतिविधियों का अंत करने के लिए कृष्ण के मार्ग-निर्देशन में महाभारत की रचना रची गई. इसके अंतर्गत करूक्षेत्र के 18 दिन का भयंकर युध्द हुआ और महाआतंकी जरासंध सहित सभी आतंकियों नाश हुआ.

आज पूरा विश्व आतंक की समस्या से जूझ रहा है. इस आतंक से कैसे निजात पाया जाए, यह आज का महत्वपूर्ण प्रश्न है. यह तो सभी को मालूम है कि अंतत: बुराई का अंत होता है और अच्छाई की विजय होती है. भारतीय महाग्रंथों के संदर्भ में आतंकवाद से कैसे संघर्ष किया जा सकता है? इस विषय पर गहन अध्ययन करने वाले आठ महाकाव्यों के अनन्य व्याख्याकार महान साहित्यकार डा. नरेन्द्र कोहली एवं डा. प्रमोद कुमार सिंह को सुनने का मौका मिला. आतंकवाद से कैसे संघर्ष किया जा सकता है? इस पर उनके विचार आपके समझ प्रस्तुत है :-

आतंकवाद के संदर्भ में मगध विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डा. प्रमोद कुमार सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि आतंकवाद के अंधकार से लड़ने के लिए हमें अपनी जड़ों की ओर मुड़ना होगा. अपने महाग्रंथों का पुन: स्मरण करना अपेक्षित होगा. शबरी से मिलने के लिए राम और लक्ष्मण अग्रसर हैं, लक्ष्मण एक बगुले को देखते हैं, जो हौले-हौले चल रहा है. लक्ष्मण अपने भ्राता राम से इसका कारण पूछते हैं. राम कहते हैं- यह बगुला धीरे-धीरे इसलिए चल रहा है कि अपना भोजन करना है. लक्ष्मण राम के कथन से सहमत नहीं होते और कहते हैं कि यह बगुला परम धार्मिक है. वह तो इसलिए धीमे-धीमे चल रहा है, ताकि कोई प्राणी उसके पैर के नीचे दबकर मर न जाएं. राम में एक प्रशासक के गुण हैं, उनका यथार्थ को देखने का एक दृष्टिकोण है. लक्ष्मण भोले हैं वह देखते हैं कि बगुला जैसा एक हिंसक प्राणी अहिंसक हो गया है. परन्तु राम हकीकत से परिचित हैं, इसलिए कहते हैं-भूलो मत यह भीतर से बड़ा ही स्वार्थी और खौफनाक है. इतिहास के कथाओं, पुराख्यानों को पढ़कर प्राचीन वांग्मय की आलोचना/समालोचना करके हम अपनी जड़ों को समझ सकते हैं. अपनी समस्याओं का निदान पा सकते हैं. आतंकवाद से संघर्ष अनवरत चलता रहेगा और हम लोगों को लड़ते रहना है. ठीक वैसे ही जैसे अर्नेस्ट हैमिंग्वे का 'ओल्ड मैन सानतियागो' समुद्र से लड़कर शार्क व्हेल को लेकर नई पीढी के लोगों द्वारा लांछित होने के बावजूद जब लाता है तो नई पीढ़ी आंख में विस्मय भरकर उसके पराक्रम को सराहने लगती है. हैमिंग्वे कहता है 'मैन कैन बी डिस्ट्रॉएड बट कैननॉट बी डिफिटेड' व्यक्ति को बर्बाद किया जा सकता है पर पराजित नहीं किया जा सकता है. यही भारतीयता है. यहां तमस पर आलोक निरंतर भारी रहेगा.

प्रखर साहित्यकार डा. नरेन्द्र कोहली ने आतंकवाद से संघर्ष विषय पर एक अपने कालेज के दिनों की एक घटना का उल्लेख कहते हुए कहा कि जब मैं कॉलेज में पढ़ाता था, उस समय भूतपूर्व छात्रों के साथ एक कार्यक्रम की व्यवस्था में लगा हुआ था कि अचानक भगदड़ मची और सभी बाहर की ओर भागे. मैंने बाहर जाकर देखा तो करीब तीन साढ़े तीन सौ लड़कों की भीड़ के बीच एक लड़के ने दूसरे लड़के को चाकू से वार करके घायल कर दिया था. वे दोनों लड़के मेरे ही छात्र थे. मैंने जाकर उन दोनों लड़कों को डांटा कि यह क्या हो रहा है? वह छात्र, जिसका नाम खैराती लाल गांधी था और जो चाकू से मार रहा था, वहां से भाग गया और घायल लड़के को उसके कालेज के मित्र अस्पताल, थाना पुलिस कार्रवाई के लिए ले गये. भीड़ जब छटी तो मैंने देखा मेरे कमीज के आस्तीन पर खून लगा था. मैं सोचने लगा कि क्या हम जंगल में रहते हैं? कोई प्रशासन नहीं क्या? कोई व्यवस्था नहीं है? अभी तक कोई पुलिस क्यों नहीं आयी? जिस किसी ने इस घटना के बारे में सुना, उसने ही मुझे डांटा कि क्या जरूरत थी बीच में पड़ने की. वह एक चाकू तुम्हारे पेट में भी घुसेड़ देता तो सारी अक्ल ठिकाने आ जाती. कुछ दिनों तक मैं भी घबराए हुए था कि पुलिस आकर मुझसे पूछताछ करेगी और सच कहने पर वे लड़के मुझे छोड़ेंगे नहीं. मगर पुलिस नहीं आयी. इसका पता उन्हीं लड़कों से पूछने पर चला कि चाकू मारने वाले ने सुबह ही पुलिस को पैसे दे दिए थे और कहा कि इधर आना नहीं. ऐसे में लोगों का यह सोचना कि पुलिस है, प्रशासन है, हम बहुत सुरक्षित हैं, सब यहीं समाप्त हो जाता है. कैसे एक लड़के के चाकू मारने की एक घटना काफी है पूरी व्यवस्था को ठप करने के लिए, पारालाइस्ड करने के लिए. मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि मेरे जैसा कमजोर और डरपोक अध्यापक इस व्यवस्था को ठीक करने के लिए क्या कर सकता है.

तब मेरा ध्यान गया विश्वामित्र के यज्ञ में राक्षस रक्त और मांस का क्या खेल खेलते थे. एक आश्रम है, ऋषि वहां पढ़ा रहे हैं, ज्ञान का कुछ आयोजन करते हैं, गुरू हैं, शिष्य हैं, बस किसी को मार डालो, यज्ञ में हड्डी डाल दो. मतलब किसी एक घटना जैसे मुहल्ले में यदि हत्या हो जाए, गोली चल जाए तो लोग इतने आतंकित हो जाते हैं कि उसके खिलाफ बोलने का साहस नहीं जुटा पाते हैं. विश्वामित्र ने जब राक्षसी आतंक का नाश करने के लिए दशरथ से जब राम को मांगा तो दशरथ पुत्र मोह में आकर अपनी चतुरंगनी सेना देने को कहा विश्वामित्र इससे इंकार कर दिया क्योंकि यदि सेना से ही आतंक का नाश होना था तो राजा दशरथ ही उसे समाप्त कर देते. विश्वामित्र ने दशरथ से राम को दस दिनों के लिए मांगा और सुरक्षित वापस करने का भी आश्वासन दिया इससे पता चलता है कि विश्वामित्र खुद अपनी रक्षा और राम की रक्षा करने में समर्थ थे वह तो राम को राक्षसी आतंक दिखाना चाहते थे और लोगों के मन से राम के माध्यम से इस भय को दूर करना चाहते थे. जैसा कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों का आतंक लोगों के मन से दूर किया, जिस अंग्रेज पुलिस के डर से लोग भाग जाते थे, छिप जाते थे, उन्हीं अंग्रेजों के जेल को लोगों से भर दिया. यहां तक लोग इतने भय मुक्त हो गये थे कि अंग्रेजों को कहते थे कि किस थाने में चलना है चल.

जब राम ने यह दृश्य देखा तो वे योजना बनाने लगे कि इससे कैसे निपटना है? आतंकवादियों को धन, शस्त्र और संरक्षण देने का काम कौन कर रहा है? राम वनगमन भी इसीलिए करते हैं कि वो जनता को जगाना चाहते हैं कि कैसे इस राक्षसी आतंक से निपटना है. रास्ते में आगे बढ़ते हैं तो उन्हें छोटे-मोटे राक्षस (आतंकवादी) मिलते हैं जो पिछड़ी दलित-दमित जातियों को सता रहे हैं. आतंकवादी अराजकता फैलाना चाहते हैं ताकि वह अपनी बात मनवा सकें. राम जब सरभंग ऋषि के आश्रम में जाते हैं तो हड्डियों का ढेर देखते हैं तो वे सोचते हैं कि राक्षस ऋषियों के मांस क्यों खाएंगे. उनके मांस तो इतने स्वादिष्ट भी नहीं थे, तपस्या से केवल हड्डी ही बची थी, तो इसके पीछे क्या कारण है? मेरी समझ के अनुसार शायद राक्षस बौध्दिक नेतृत्व को समाप्त करना चाहते हैं. ऋषि बुध्दिजीवी थे, वह आवाज उठाएंगे, दलित-दमित जातियों को शिक्षा देगें, उनको आगे बढ़ाएंगे जैसे कि अगस्त ऋषि समुद्र परिचालन की शिक्षा दे रहे थे, तमिल का व्याकरण लिख रहे थे. विंध्याचल के उत्तर-दक्षिण को मिला रहे थे ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनसे राक्षसों के मार्ग में ये ऋषि बाधक थे. राक्षस उन्हें डराने के लिए उनके समक्ष हड्डियां डाल देते थे कि हमारा कहना नहीं मानोगे तो तुम्हारा भी अंजाम यही होगा. यही तो आतंकवाद है. आतंकवाद वह है जो व्यक्ति को डरा देता है, इतना असहाय बना देता है कि वह कीड़े-मकोड़े के समान हो जाता है. कम्ब के रामायण में इन्द्र को राक्षसों का संक्षरणदाता एवं मौन समर्थक कहा गया है. क्योंकि अगर इन्द्र ऋषियों के साथ थे, तब वहां राम के होने कि क्या आवश्यकता थी. इन्द्र ही राक्षसों का अंत कर देते. यहां इन्द्र की तुलना अमेरिका जैसे महाशक्ति से है. अमेरिका भी आतंकवाद के मूल स्रोत पाकिस्तान का संरक्षणदाता है. भारत सरकार द्वारा जब यह कहा जाता है कि कि लाइन ऑफ कन्ट्रोल के पार आतंकवादी शिविर हैं वहां जाकर उन्हें खत्म करेंगे तो अमेरिका भारत का हाथ पकड़ लेता है कि तुम लाइन ऑफ कन्ट्रोल पार नहीं करोगे. आतंकवादी गतिविधि चलाने के लिए हथियार, धन, सर पर हाथ होने की आवश्यकता होती है, लेकिन रामायण में राम उसी समय प्रतिज्ञा करते हैं कि उनके (राक्षसों) साथ कोई मीटिंग नहीं, कोई संधि नहीं, कोई सोच-विचार नहीं, कोई रियायत नहीं। यहाँ भारत सरकार के दुर्बल हृदय बात है कि किस तरह कश्मीर में आतंकवादियों को मस्जिद में बिरयानी खिलाया गया और उन्हें सुरक्षित रास्ता पाकिस्तान जाने के लिए दिया. किस तरह दिल्ली की सरकार संसद पर हमला करने वाले मास्टर माइंड अफजल को बचाने की कोशिश कर रही है. पर राम को किसी का भय नहीं. न इन्द्र का और न रावण का.


गीता में कृष्ण ने अर्जुन को कहा जो शत्रु है उसे शत्रु मान और उसका एक ही उत्तर है शत्रु का दमन. दुष्ट दलन उस रूप में राम यह प्रतिज्ञा करते हैं और जहां भी राक्षस मिल जाते है उनको मारते हैं. एक ऋषि के आश्रम में जब राम रूकने की बात कही तो ऋषि ने कहा मेरा आश्रम बहुत अच्छा है पर वहां उपद्रवी मृग आते हैं. इससे पता चलता है कि कुछ बुध्दिजीवी जानते सब कुछ हैं पर उसका विरोध करने का साहस उनमें नहीं है और कुछ बुध्दिजीवी बिके हुए है. अंत में राम अगस्त ऋषि के पास जाते हैं जो बुध्दिजीवी भी हैं और योध्दा भी. अगस्त ऋषि पहले से हीे राक्षसों से लड़ रहे थे. राम को गोदावरी के तट पर भेजते हैं, जहां खर-दूषण,शूर्पणखा आदि जैसे आतंकवादियों का स्कंधावर (गढ़) है. वहां जाओ ताकि वहां जो जड़ है उसे उखाड़ फेकों तो आतंकवाद ऐसी चीज नहीं है कि एक-दो आतंकवादी को मार दिया तो वह समाप्त हो गया, उसे प्राण देने वाली जो शक्ति है उसे समाप्त करना आवश्यक है. रावण ही महाआतंकवादी है यह राम जान गए थे. उसको परास्त करने एवं उसका समूल नाश करने के लिए वे आमजन का सहयोग लेते हैं. रावण से युध्द करने के लिए लक्ष्मण, सुग्रीव, जामवंत, हनुमान के साथ पंचायत करते हैं कि किस तरह युध्द किया जाए, जिसमें सभी क ा सम्मान, सुरक्षा, सम्पति का आदि का ख्याल रखा जाए. राम ने आम जन के सहयोग से ही महा आतंकी रावण का समूल नाश किया.
महाभारत काल में भी कई आतंकवादी थे जिनमें एक बकासुर था, जो कहता था हर दिन खाने को एक आदमी चाहिए नहीं तो सबको को मार डालूंगा. तक्षक भी एक आतंकवादी था, जिसका काम ही था इसको-उसको डसना. आज के संदर्भ में तक्षक का काम नक्सलवादी, माओवादी आदि आदि कर हैं. जब कृष्ण-अर्जुन तक्षक को ढूंढते हुए उसके समीप पहुँचे. पता चला तक्षक तो वहां है ही नहीं, उसे इन्द्र ने खण्डप्रस्थ के पड़ोस में छिपा कर रखा है. इस दौरान इन्द्र तक्षक के बेटे को वहां से बचा कर ले जाता है. हैं जिस तरह अमेरिकी जरनल के सामने से पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को तालिबान से एयर लिफ्ट किया. इसी तरह आतंकवादियों की एक मंडली थी जिसका सरगना जरासंध था. इसकी मंडली में कंस जैसे आतंकी भी थे. पांडव जब वन गमन कर रहे थे तो दुर्योधन उनके सामने अपने वैभव का प्रदर्शन करने गया था, जहां उसका गन्धर्वों के साथ युध्द हुआ और गन्धवों के राजा चित्रसेन ने उसे पकड़ लिया. कर्ण पहले से ही वहां से भाग चुका था. तब अर्जुन ने दुर्योधन को चित्रसेन से मुक्त कराया. इस बात पर दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और उसे काफी कष्ट हुआ. वह अन्न-जल त्याग कर बैठ गया और प्राण देने का हट करने लगा. जब सभी दैत्य शक्ति एकत्र होकर उससे कहती है कि हम सभी तेरे साथ हैं. तू पाण्डवों से युध्द कर. भौमासुर की आत्मा कर्ण में समा जाती है वास्तव में यह सब कृष्ण की योजना का अंग था. उनका यहां उद्देश्य था कि सभी आसुरी शक्तियों को एक साथ एकत्र कर लिया जाए, ताकि अधर्म का नाश हो सके. जब युध्द भूमि में अर्जुन विचलित होकर यह कहते हैं कि वे अपने गुरूजनों के रक्त से भीगा हुआ साम्राज्य नहीं चाहते हैं. इस पर कृष्ण उन्हें यह समझाते हैं कि वे धर्म के लिए युध्द कर रहे हैं. अर्जुन का कहना था कि अपने लोगों की हत्या करने से अच्छा है, भिक्षा मांग कर जीवनयापन करना. इस पर कृष्ण उनका साथ नहीं देते हैं, बल्कि उन्हें गाण्डवी उठाने के लिए प्रेरित करते हैं और धर्म की स्थापना हेतु युध्द करने के लिए कहते हैं. कृष्ण, अर्जुन को यह समझाते हैं कि संन्यास की ओर न जाकर कर्म के लिए युध्द करो. यही गीता का उद्देश्य है. कर्म करो, फल की चिन्ता न करो.

आतंकवाद की समस्या से लड़ने के लिए सबसे आवश्यक है - दृढ़संकल्प. संकल्प के अभाव के कारण ही आतंकवाद की समस्या इतनी बढ़ चुकी है. यह आवश्यक है कि राजा नहीं करता तो प्रजा करे, प्रजा को लड़ना पड़ेगा. हमारे धार्मिक ग्रंथों में यही कहा गया. धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक है - दृढ़ राजनीतिक संकल्प. जिसकी आज हमारे देश को आवश्यकता है.

2 comments:

मनोज द्विवेदी said...

Apaka tark bilkul galat hai. bina kisi pukhta tathya ke apne ravan ko atankwadi ghosit kar diya. sayad apko atankwad ki paribhasha nahi pata. ravan. jarasandh. kans aur jin rakshason ka apne naam liya hai. we masoomo ki jaan nahi lete they. we devtao ko parajit karte the. swarg ki satta ke liye ladai ladte the. unka uddeshya tha. atankwadiyon ka koi uddeshya hai? betuki batein logon ko batana samaj ke prati annyay hai. apse nivedan hai ki apne vicharon ko dusaron pe na thope. aur jahan tak ho sake atankwad ke upar aur padhe.

Anonymous said...

एक और धार्मिक पाखण्ड.
वैसे इतना ज्यादा तो प्रभाष जोशी लिखें तो भी न पढूं.