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27.12.08

divya santo ka naam lena kya galat hai

हां. हां बिलकुल गलत नहीं है, पर भड़ास में यह बात करना ऐसे ही है जैसे दारू के अड्डे पर जाकर भजन। इसकी दिव्यता को चूतियापा है जनाब। दिमाग खाने वाले बॉस, डीग हांकने वाले साथी और सत्यानाशी नेताओं को अपने ही निराले अंदाज में निपटाना इसके प्रमुख लक्षण रहे हैं। बनारस से हिंदी में डॉक्टरी करके पूरे हिंदुस्तान को हिंदी का पाठ पढाने वाले विद्वानों को अपना शब्दकोष समृध्द करने के लिए इस भड़ास ने काफी योगदान दिया है या यों कहिए की साहित्य को नई विधा दी है। अगर पतित और गिरे हुए गले से लगाना देवत्व की निशानी है तो शब्दों की दुनिया में भड़ास ने यही काम किया है। ऐसे कितने ही शब्द हैं जिन पर कलम चलाने से साहित्य मटियामेट होता है जबान पर लाने से संस्कार अकाल मौत मर जाते थे उन्हीं शब्दों का उपयोग किस अलंकारित रूप से यहां हुआ है, उसकी मिसाल अन्यत्र मुश्किल है। इन शब्दों के प्रणेता डॉ रुपेश श्रीवास्तव, यशवंत सिंह, मुनव्वर आपा का मिजाज ही भड़ास है। सिंह साहब कृपया मुझे काफिर ना समझें। मेरी सलाह है कि यह अंधो की बस्ती है। क्यों आइना बेचते हो भाई।

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

गुरूभाई गलत करा आपने...जीवन भर शिकायत रहेगी...मैं इतना बुरा तो नहीं हूं। आप भोपाल पहुंच कर धंधे में लग गये होंगे नया मोबाइल नंबर दीजियेगा,आशीष महर्षि भी वहीं है अगर हो सके तो मुलाकात करियेगा।
छीछालेदर रस वाकई जिव्हा और मन में विचित्र सा ऊऊऊऊऊऊऊऊ पैदा करता है।

यशवंत सिंह yashwant singh said...

आपने लिखा
-जैसे दारू के अड्डे पर जाकर भजन
-यह अंधो की बस्ती है, क्यों आइना बेचते हो
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दोस्त, भजन दारू के अड्डे वाले ही गाते हैं क्योंकि दारू पीने वाला दुनिया के सबसे ईमानदार लोगों में से होते हैं, ऐसा मेरा मानना है। वे अपना नार्को टेस्ट खुद करते हैं, जो कुछ दिल में होता है बक बक कर देते हैं, जुबां पर भजन, गीत, गाना और पैरों में नृत्य, मस्ती और ठुनक होती है। जो बड़े संत हुए हैं वे दरअसल बिना पिए ही इस सहजता, नृत्य, भजन को पा जाते हैं लेकिन अगर दुनियादार पीकर भजन गाता है तो उसे भी संत माना जाना चाहिए। शायद, संतई की ओर बढ़ने की सीढ़ी है दारू का अड्डा।

रही अंधों की बस्ती वाली बात तो ये देखने वाले के नजरिए पर डिपेंड करता है। एक संत के लिए दुनिया माया मोह में लिपटी हुई अंधों की नगरी है और एक दुनियादार के लिए कोई संत फालतू किस्म का आदमी है। पर इन दोनों के बीच की भी एक प्रजाति होती है जो दुनियादार होते हुए भी संत होती है और संत होते हुए भी दुनियादार होती है। ऐसे संतों को फालोअर भले न मिलें, ऐसे संत चेहरा भले न रंगें और गेरुआ भले न पहनें लेकिन ये दिल से असल संत होते हैं। आज के जमाने में असल संतों को जान पाना ही सबसे बड़ी मुश्किल है क्योंकि असल संत कभी नहीं कहता कि वो संत है। वो तो अपनी मस्ती में जीता चला जाता है, अपने आंतरिक ऊर्जा के अनुरूप आगे बढ़ता चला जाता है। दुनिया कभी उसे बुरा कहती है तो कभी अच्छा लेकिन वो दुनिया के कहे की कभी परवाह नहीं करता। शायद ऐसी ही स्थितियों में इसा मसीह को सलीब पर लटका दिया गया और कई संतों पर ईंट-पत्थर मारे गए क्योंकि उन्होंने दुनियादारी के नियमों के तहत चलने की बजाय अपने दिल के कहे पर चले और जिए। ये कांट्राडिक्शन समाज कभी पचा नहीं पाता।

गुरुदत्त जी, मेरे खयाल से विनय बिहारी जी जो कुछ लिखते हैं उसे अगर पूरा पढ़ें तो आप निष्कर्ष निकालेंगे कि दरअसल जो संत हैं वो बिलकुल हमारे आप जैसे मनुष्य की ही तरह रहे लेकिन वो कभी दुनियादारी की गणित में नहीं पड़े। मनुष्यता के मूल संवेदना को जीते चले गए और एक समय बाद दुनिया ने उन्हें संत कहना शुरू कर दिया।

मैं आपको गलत नहीं कह रहा और न ही आपकी बातों को काट रहा हूं। सिर्फ आपने जो कुछ लिखा है, उसके अंतरविरोध को खुद समझने की कोशिश कर रहा हूं।

आभार के साथ
यशवंत

Anonymous said...

डाक्टर साहब,
ये गुरु भाई नही, गुरु घंटाल भाई है, जियो मेरे भाई.

जय जय भड़ास