मनीषा पांडेय ने अपनी पोस्ट में मेरी बातों, विचारों, इरादों को जिस तरह कनसीव किया है, और जो कलम तोड़ कर लिखा है, उसका एक एक कर जवाब देना चाहूंगा....यशवंत
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आपने कहा---
हिंदी में बहसें कैसे होती हैं। जाना होता है, भदोही, पहुंच जाते हैं भटिंडा।
मेरा कहना है...
दरअसल मठाधीशों का हमेशा इरादा रहता है कि बहसें उनके मुताबिक, हिसाब से चलें और उनके तरीके को ही लोग स्वीकार कर वाह वाह, शानदार, वेरी गुड कहें...जैसा कि हो रहा है....। बात निकली है तो दूर तलक जायेगी.....। अगर बात निकली है तो उसके हर लेयर, पर पेंच, हर एंगिल को समझा बूझा जाएगा और लोग उसे अपने अपने तरीके से बूझेंगे। इसे रोकने की मंशा रखना, नियंत्रित करने के बारे में सोचना, इससे खफा होने एक व्यक्तिवादी और आत्मकेंद्रित सोच का परिचायक है।
आपने कहा---
पतनशील स्वीकारोक्ति पढ़कर भड़ासी को लगता है कि उनके भड़ासी बैंड में एक और भोंपू शामिल हुआ
मेरा कहना है...
सच्ची बात तो यही है जो मैंने कहा था, आप भड़ास निकाल रही हैं। इस भड़ास के मायने कतई भड़ास ब्लाग या भड़ास बैंड नहीं बल्कि दिल की बात कह देना है, जो आप शिद्दत से महसूस करती हैं। इस देश में जिस तरह से 99 फीसदी लोग बड़ी बड़ी सैद्धांतिक बातें बघार कर फिर अपने रोजी रोटी और कमाने खाने में जुट जाते हैं, अपने धंधे को बेहतर करने में लग जाते हैं और समाज को व अवाम को अपने हाल पर छोड़ देती हैं, अगर वही करने का इरादा है तो कोई बात नहीं। ब्लागिंग में ऐसे ढेर सारे लोग हैं जो अपने ब्लाग पर क्रांति की अलख जगाए हुए हैं और उसके बाद बेहद निजी किस्म के शीशे के घरों में बेटा बिटिया माई बाप बियाह खाना पैसा धंधा सुख दुख....आदि किस्म की निजी चीजों को प्राथमिकता में रखे हुए हैं। वहां से बाहर निकलते ही फिर सिद्धांत बघारने लगते हैं। आप वैसा हैं या नहीं, आप जानें लेकिन यह जरूर है आप अच्छा खासा भोंपू बजा लेती हैं, रीमिक्स वाला।
आपने कहा---
यह पतनशील स्वीकारोक्ति क्या कोई भड़ासी भोंपू है। कौन कह रहा है कि लड़कियां अपने दिल की भड़ास निकाल रही हैं।
मेरा कहना है...
इसका जवाब उपर दे दिया है। लड़कियां भड़ास नहीं निकालेंगी तो देवी व दुर्गा बनी रहेंगी। आप भी बनी रहिए। आपको अच्छा अच्छा गुडी गुडी कहने वाले ढेर सारे लोग हैं। भगवान ने बुद्धि और कलम दे दी है, चाहे जिसकी बखिया उघेड़िये। आप लिखते रहिए अंतरराष्ट्रीय महिला विशेषज्ञों के नाम लेकर उद्धरण देते हुए महान नारीवादी आंदोलनों के दर्शन और आंसू बहाते रहिए महिलाओं की दशा-दिशा पर। लेकिन जो कुछ झेला है, बूझा है, महसूसा है...उसे कहने का साहस नहीं होगा, भड़ास निकालने की ताकत नहीं होगी तो ढेर सारे आडंबरियों से बाहर आप भी नहीं होंगी।
आपने कहा---
यह मुल्क, यह समाज तो स्त्रियों के प्रति अपने विचारों में आज भी मध्य युग के अंधेरों से थोड़ा ही बाहर आ पाया है और वो बदलते बाजार और अर्थव्यवस्था की बदौलत।
मेरा कहना है...
चलिए माना न आपने कि आप के चलते लड़कियां जो आज बेहतर हालत में हैं, नहीं हैं बल्कि इसके पीछे बाजार है। और यही बाजार लड़कियों को और पतित करेगा, और अच्छी हालत में ले जायेगा। और तरक्की करने देगा। आप लोग खामखा गाल बजाती रहेंगी, शरीफ, नेक और ईमानदार बनने के लिए।
आपने कहा---
कैसा है यह मुल्क। इस इतने पिछड़े और संकीर्ण समाज में बिना सिर-पैर के सिर्फ भड़ासी भोंपू बजाने का परिणाम जानते हैं आप। आपको जरूरत नहीं, जानने की। अर्जुन की तरह चिडि़या की आंख दिख रही है। पतनशीलता के बहाने अपनी थाली में परोसी जाने वाली रसमलाई।
मेरा कहना है...
जी, हम जानते हैं भड़ासी भोंपू बजाने का परिणाम। आज हम हिंदीवाले जो अंग्रेजी के दबाव में, हिंदी मीडिया की सामंती गठन, ऐंठन के दबाव में जिस विकृति को जी रहे थे, उसे निकाल कर, उसे उगल कर सहज महसूस करते हैं। भड़ास कोई बैंय या भोंपू नहीं मेडिकल साइंस की एक विधा है जिसे डा. रूपेश और मुनव्वर सुल्ताना बेहतर जानते हैं। कभी अपनी नौकरी, अपने ब्लाग और अपनी दुनिया से बाहर वक्त मिले तो भड़ास को कायदे से पढ़िए और समझिए। लेकिन जो लोग अपने को काबिल और झंडाबरदार मान चुके हैं दरअसल उन लोगों को कुछ भी समझ में नहीं आता। और आपने जो बात कही है कि पतनशीलता के बहाने अपनी थाली में परोसी जाने वाली रसमलाई ....तो मैं ये कह सकता हूं कि आपके इस बौद्धिक दिवालियेपन के लिए भगवान आपको माफ करे। आप को खुद नहीं पता आप क्या लिख रही हैं, क्या कह रही हैं।
आपने कहा---
मैं यह बात आज इस तरह कह पा रही हूं, क्योंकि मैंने कुछ सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक सहूलियतें हासिल कर ली हैं।
मेरा कहना है...
केवल कहते रहिए। सिद्धांत दर्शन गढ़ते रहिए। अगर इसी सबसे क्रांति या उत्थान या तरक्की संभव थी तो अब तक रोज तरक्की व क्रांति होती।
आपने कहा---
सुल्तानपुर के रामरतन चौबे की ब्याहता और प्राइमरी स्कूल टीचर की 16 साल की बेटी से मैं इस भड़ासी बैंड के कोरस में शामिल होने को नहीं कह सकती।
मेरा कहना है...
ऐसी ही लड़कियां गढेंगी लड़कियों के लिए एक अलग सा भड़ासी बैंड। आप देखते रहिएगा। भड़ासी बैंड गढ़ने के लिए साहस चाहिए, समाज के खिलाफ जाने कि हिम्मत चाहिए, आलोचनाओं को झेलने का बूता चाहिए। मास्टर की तरह गूढ़ बातें करने कहने से वो रामरतन की बिटिया कुछ नहीं समझेगी, शून्य में टुकुर टुकुर ताकती रहेगी। उसे साफ साफ समझाने वाली जरूर आएगी। लेकिन ये आप जैसियों से संभव नहीं है।
आपने कहा---
यशवंत जी, आपके सारे सुझाव एक गरीब, दुखी देश की दुखी लड़कियों के रसालत में पड़े जीवन को और भी रसातल में लेकर जाते हैं। मेरी पतनशील स्वीकारोक्तियों का सिर्फ और सिर्फ एक प्रतीकात्मक महत्व है। उसे उम्दा, उत्तम, अति उत्तम स्त्री विमर्श का ताज मत पहनाइए। ऐसे सुझाव देने से पहले ये तो सोचिए कि आप किस देश, किस समाज के हिस्से हैं। मुझ जैसी कुछ लड़कियां, जिन्होंने कुछ सहूलियतें पाई हैं, जब वो नारीवाद का झंडा हरहराती हैं, तो क्या उनका मकसद लड़कर सिर्फ अपनी आजादी का स्पेस हासिल कर लेना और वहां अपनी विजय-पताका गाड़ देना है। मैं तो आजाद हूं, देखो, ये मेरी आजाद टेरिटरी और ये रहा मेरा झंडा।
मेरा कहना है...
भइया हम बुरे लोग हैं, मैंने पहले ही कहा था, फिर कह रहा हूं। और आप जैसों को ये लगता है कि हमारे सुझवा रसातल में ले जाएंगे तो ये शायद आपकी समझदारी की कमी है या फिर भड़ासियों की कमजोरी है जो आपको समझा न पाए। थोड़ा वक्त निकालिए और फिर पढ़िए गुनिए भड़ास को व भड़ासी दर्शन को।
ये तो होना ही था, आपकी पतनशील स्वीकारोक्तियां कहीं आपके खिलाफ न चली जाएं सो आपके फेस सेविंग करनी ही थी। आखिर आप भी लड़की हो और इसी समाज में आपको रहना है। बहस को गोलमोल और बौद्धिक बना देने की यह रणनीति कोई नई नहीं है। हमेशा ऐसा होता है कि जब कम पढ़े लिखे लोग फील्ड में जाकर चीजों को एक ठीक ठीक दिशा में ले जाने की कोशिश करते हैं तो कुछ बौद्धिक आकर उन्हें उसके हजार पेंच समझातें हैं और सारे आंदोलन को कनफ्यूज कर देते हैं। आपका कनफ्यूजन भले ही शाब्दिक आवरण में धारधार और साफ साफ लग रहा हो लेकिन आपसे कह दिया जाए कि आप स्त्री मुक्ति के लिए चार चरणों की वास्तविक स्ट्रेटजी डिफाइन करिये तो आपके पास या तो वक्त नहीं होगा या फिर आप फिर बौद्धिक प्रलाप करने लगेंगी। आपने जो सुविधायें हासिल कर ली हैं, उसे मेंटेन रखते हुए नारी मुक्ति की कल्पनाएं और कथाएं कहते रहिए, देखते हैं, उससे कितना भला होता है स्त्रियों का।
जिस दिन लड़कियों तक, स्त्रियों तक अपने लिए स्पेस पाने का संदेश पहुंच गया न तो उस दिन से आपके रोके नहीं रुकेगा उनका पतन। अभी जो पतन है सीमित मात्रा में। संदेस पहुंचने के बाद कुछ उसी तरह लड़कियां बुरी बनेंगी, पतित होंगी जिस तरह गांधी जी का संदेश पहुंचने के बाद भारत के जन जन में हुआ था। लोग अंग्रेजों के फौज पाटे से डरना भूल गए और खुलकर सामने आ गए....हां, हमें आजादी चाहिए।
आपने कहा---
आपको लगता है कि स्त्री-मुक्ति इस समाज के बीच में उगा कोई टापू है, या नारियल का पेड़, जिस पर चढ़कर लड़कियां मुक्त हो जाएंगी और वहां से भोंपू बजाकर आपको मुंह बिराएंगी कि देखो, मुक्ति के इस पेड़ को देखो, जिसकी चोटी पर हम विराजे हैं, तो हमें आपकी अक्ल पर तरस आता है।
मेरा कहना है...
टापू तो आप बनाए हुए हैं, अपने तक सीमित। खुद के इर्द गिर्द बहस चलाने की रणनीति बनाकर। हम तो विस्तार अपार वाले लोग हैं। मान लो, अगर आप और हम टापू भी हैं तो इन टापूओं को क्रांति के प्रतीक टापू बनाने होंगे, इनके फैलाव बढ़ाने होंगे। इन्हें बाकी जगहों पर संदेस भेजने होंगे कि आओ, तुम भी इस जैसे टापूओं के निर्माण में जुट जाओ।
बिलकुल मुंह बिराना चाहिये इन टापूओं पर खड़े होकर। बिलकुल दिखाना चाहिए मुक्ति के पेड़ को। ताकि संदेश आम अवाम तक पहुंचे। वो इस मुक्ति को, इस सुख को, इस आजादी को जी सकने की कम से कम लालसा तो पैदा हो।
रही बात मेरी अकल पर तरस करने को तो फिर वही कहूंगा, आपका बौद्धिक दिवालियापन दरअसल आपकी आंख पर पट्टी बांधे हुए है जो आपक आपकी सोच से बाहर आने से रोके हुए है। आपके अंदर भी एक क्रांति की जरूरत है तभी यह अहन्मयता जाएगी और आप सहज व सरल हो पाएंगी। ऐसे दंभी व्यक्तित्व को अपने सिवाय सारी दुनिया मूरख और खराब दिखती है। हां में हां मिलाओ तो खुश, कुछ अलग से सोच कर कह दो तो आग लग गई। दरअसल ये दिक्कत आपकी नहीं, आप जिस ढांचे की हिंदी मीडिया व समाज से निकल कर आगे बढ़ी हैं, उसकी दी हुई ट्रेनिंग है। इससे मुक्त होना ही शिवत्व है, समझदारी हैं। तभी आप अपने समुदाय, लिंग की अगुवा और नेता बन पाएंगी। मैं ये दावे से कह सकता हूं कि दूसरों की अकल पर तरस खाने वाली मनीषा की किसी से नहीं पट सकती क्योंकि ये जो भयंकर वाला इगो है वो जानलेवा है। प्लीज, भड़ास के डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव से संपर्क कीजिए आप जिन्होंने ऐसे ढेरों मरीजों को सहज व सरल बनाया है।
आपने कहा---
लेकिन फिलहाल भडा़सी बैंड की सदस्यता से हम इनकार करते हैं। आप अपने कोरस में मस्त रहें।
मेरा कहना है...
हमने कभी नहीं कहा कि भइया मनीषा आओ, भड़ासी बन जाओ। हमने हमेशा भड़ास से लड़कियों और महिलाओं की ज्यादा उपस्थिति पर ऐतराज जताया है। यकीन न हो तो भड़ास को पढ़ लेना। दरअसल स्त्री को देखकर पुरुष में लार टपकाने की जो आदत है ना, भड़ासी उससे मुक्त हैं। ये ग्रंथि उनमें जरूर हो सकती है जो आपकी हर अदा पर वाह वाह करते होंगे। हम तो जो सोचते समझते हैं, सच्चा, खरा, सोने की तरह उसे उगल देते हैं। ये आप पर है कि आप इस उगलन को कितना स्वीकार्य कर पाती हैं। भड़ास आपके बगैर मजे में हैं और हमारा कोरस बहुत बढ़िया अंदाज में जन जन तक पहुंच रहा है।
उम्मीद है, आपको सारे सवालों के जवाब मिल गए होंगे। कुछ बाकी हों तो बताइएगा।
जय भड़ास, जय चोखेरबालियां
यशवंत सिंह
21.2.08
मनीषा जी, बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...उर्फ रसमलाई बनाम दिवालियापन
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4 comments:
thode tlkhi me hi sahi, pr aapne achchha jvab diya hai...drsl bahas bdlav ke lie n hokr mnbahlaval ke lie ho rhi hai....
दादा,मनीषा बहन(उम्मीद है कि यह सम्बोधन उन्हें बुरा नहीं लगेगा) की अपनी सोच है क्यों आप चाहते हैं कि वे अपना चश्मा उतार दें और अगर उन्हें द्रष्टि दोष हो तो वे चश्मा उतार कर तो कुछ भी ठीक से नहीं देख पाएंगी । भड़ास का अपना दर्शन नहीं है बस सहजता और सरलता की एक हार्दिक अभिव्यक्ति है हो सकता है काट-छांट कर बनाए सत्य को ये लोग अधिक सुन्दर मानते हों तो भला हमें क्या ऐतराज है । अगर उन्हें भड़ासियों को देखकर उल्टी होने लगती है तो कर लेने दीजिए वरना गले,मुंह या दिल कहीं भी बात अटकी रह गई तो तमाम मनोशारीरिक बीमारियां घेर लेंगी । एक बात कहना चाहूंगा कि आप किसी को कोई विशेष अंदाज़ सिखा सकते हैं पर सहजता सिखाया नहीं जा सकती वह तो आत्मा का विषय है उसे मन और शरीर की बातें करने वाले समझ ही नहीं सकते हैं । मुनव्वर सुल्ताना जी से मनीषा जी की तुलना उचित नहीं है क्योंकि सबकी अलग-अलग सुगंध है ,निजता है ,सौन्दर्य है । मनीषा बहन से एक ही बात कि यदि कभी सरलता उपज सके ईश्वर की दया से तो भड़ास की सरलता से आत्मसात हो सकेंगी ।
आपने अपनी बास बहुत संयत, और सुसगंत तरीके से रखी.
अंदाजेबयां पसन्द आया
यह नई बहस कहां से पैदा हो गई,
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